A JOURNEY IN TO HEALING

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who are mentally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like to come, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power.

समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।

प्रेम करुणा और वासना

प्रेम करुणा और वासना
लेख: पवन बख्शी

प्रेम एक सर्वविदित शब्द है। यह एक ऐसा शब्द है कि सभी लोग अपने जीवन में कभी ना कभी इसका सामना किये ही रहते हैं। लेकिन प्रेम को  सिर्फ शब्दों तक ही जानते हैं। आज जितना यह शब्द प्रदूषित हो चूका है पहले कभी भी नहीं हुआ था। प्रेम मनुष्य के चेतना की एक ऐसी अवस्था है जिसमें वासना समाप्त हो जाती है। अधिकांश मनुष्य तो वासना को  ही प्रेम समझते हैं युवा वर्ग हो या बृद्ध वर्ग दोनों ही भ्रमित हैं। दोनों का प्रेम के सम्बन्ध में विचार एक ही केंद्र बिन्दु से जुड़ा होता है। दोनों का अनुभव वासना के स्तर पर ही है। प्रेम की चाह प्रत्येक मंनुष्य के अन्दर होती है, परन्तु वासना में प्रेम कहाँ ? प्रेम में तो वासना समाप्त होने के बाद ही हुआ जा सकता है। आज वासना को  ही प्रेम कहा जा रहा है। वासना का अर्थ केवल सम्भोग क्रिया से ही नहीं है, बल्कि वासना के अंतर्गत हमारी समस्त महत्वकांक्षाएं आ जाएँगी जो सिर्फ अपने सुख के लिए ही उठती हैं। वासना में हम स्वतः किसी भी तरह आनंदित हो लेना चाहते हैं तथा दूसरे व्यक्ति के सुख का ख्याल तक नहीं आता। वह भले ही अपना जीवन साथी ही क्यों न हो  कुछ लोग अपने जीवन साथी का भी ख्याल कर लेते हैं लेकिन जहां पर उनकी इच्छाओं में बाधा पड़ने लगती है वहां पर वे अपने जीवन साथी के सुख सुविधाओं के ख्याल को  भूल जाते हैं। कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिन पर यह लागू नहीं होगा। परन्तु उनकी संख्या बहुत ही कम होगी। जो लोग अपने जीवन साथी का थोड़ा ख्याल कर लेते हैं वे भी प्रेम को  नहीं समझते हैं। उनकी यह नम्रता सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि अन्यत्र से वासना तृप्ति का कोई साधन नहीं दिखायी देता है।

जो लोग वासना को  ही प्रेम समझकर जीवन का प्रारंभ करते हैं उन्हें तनाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है क्योंकि वासना में मनुष्य सदा ही अतृप्त होता है तथा तृप्त होने के लिए सदा ही नए -नए साधनों की तलाश करता है। वासना में मनुष्य अपने साथी को  वस्तु के तरह से प्रयोग करता है। इसीलिए पति पत्नी से तथा पत्नी पति से, दोनों एक दूसरे से ऊब जाते हैं लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं। जो लोग इसकी परवाह नहीं करते वे अलग हो जाते हैं।

वासना वह कीचड़ है जिसमे प्रेम के कमल खिलते हैं लेकिन कीचड़ को  कमल समझ लेना मुर्खता है। जिसके अन्दर वासना नहीं है वह प्रेम को  नहीं समझ सकता है। वासना के बिना प्रेम भी नहीं हो सकता है। इसका यह अर्थ भी नहीं लगाना चाहिए कि वासना ही सब कुछ है। इसको  इस प्रकार समझना चाहिए कि वासना बीज है, प्रेम वृक्ष है तथा करुणा फल है। जिसके पास वासना का बीज नहीं होगा उसके पास प्रेम के वृक्ष भी नहीं हो सकता तथा करुणा फल भी नहीं हो सकता है। जिस प्रकार से बीज का प्रयोग उदर तृप्ति में करने से फसल नहीं उगाया जा सकता, ठीक उसी प्रकार से वासना का उपयोग शारीरिक सुख के लिए करने पर प्रेम के वृक्ष नहीं तैयार हो सकते हैं। जिस प्रकार से बीज के नष्ट होने के पश्चात् ही पौधा का अंकुर निकलता है, ठीक उसी प्रकार से वासना के नष्ट होने के पश्तात ही प्रेम के अंकुर निकलते हैं। वासना और प्रेम दोनों एक साथ नहीं रह सकते। प्रेम के होने के लिए वासना का नष्ट होना अनिवार्य शर्त है। यहाँ पर एक अर्थ स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वासना का दमन कर के नष्ट नहीं किया जा सकता है। दमन करने पर भी वासना तो अन्दर रहती ही है, समय पाकर कभी न कभी ऊपर अवश्य ही आयेगा। दमन से वासना का बीज और भी पुष्ट होता जाता है। वासना को  रूपांतरित करने के लिए उसे नष्ट करना ही होगा। उससे कम शर्त पर प्रेम संभव नहीं है। बीज को  बचाकर वृक्ष तैयार नहीं किया जा सकता। यह नहीं हो सकता कि बीज भी बचा रहे और वृक्ष भी तैयार हो जाये। वृक्ष को आने के लिए वासना को  जाना ही होगा।

अतृप्ति का ही नाम वासना है तथा पूर्ण तृप्ति है प्रेम। प्रेम में कोई आकांक्षा नहीं होती है, क्योंकि आकांक्षाएं तो अतृप्ति से ही आतीं हैं। और अतृप्त व्यक्ति किसी भी तरह स्वयं तृप्त हो जाना चाहता है, वह यह इसकी फिक्र नहीं करता है कि किसी को  कष्ट भी हो रहा है। वासना में व्यक्ति पशु के भांति व्यवहार करता है। जबकि प्रेम में परम विश्रांति को  प्राप्त होता है वासना और प्रेम में मुख्य अंतर यह है कि वासना में मनुष्य कि उर्जा नीचे की ओर तथा प्रेम में ऊपर की ओर प्रवाहित होती है। वासना वासना में मनुष्य का केंद्र खो जाता है तथा प्रेम में केंद्र पर होता है। बहुत लोग प्रेम के भ्रम में वासना को  ही पोषित करते रहते हैं। जहाँ पर थोड़ा भी अपने सुख का ख्याल आया वहां प्रेम नहीं हो सकता है भले ही हम उसे देख न पायें। प्रेम में दो नहीं होते जहाँ पर दो की अनुभूति होती है वहां पर वासना ही होती है। प्रेम अखंड होता है तथा वासना में व्यक्ति बनता होता है।

वासना
प्रेम क्या होता है ? वासना क्या होती है ? प्रेम और वासना में अन्तर क्या है ? अधिकांषतः युवक और युवतियां इससे अनभिज्ञ हैं। यह केवल शारीरिक सम्बन्धों और विवाह को  ही प्रेम की अन्तिम सीढ़ी समझते हैं।

वासना एक ऐसी यथार्थ भूख है जो कि हर एक स्त्री पुरूष मे एक दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा होना है, जिसे शान्त होना आवश्यक है अन्यथा मनुष्य वह्शी हो जाता है। यही प्रक्रृति का नियम भी है। प्राचीन काल मे हमारे ग्रन्थो मे उल्लेख है कि देवो के देव इन्द्र के भी स्वर्ग लोक मे अपसराओ का उल्लेख है।

वासना का अर्थ होता है कामलिप्सा या मैथुन की तीव्र इच्छा। वासना कभी-कभी हिंसक रूप में भी प्रकट होती है। अधिकांश धर्मों में इसे पाप माना गया है।

वासना का सुख
विषयों में अनुराग रखने वाला पुरुष ही बन्धन में होता है। विषय पांच हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। ये पाँच महाभूतों की तन्मात्रायें हैं आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी पाँच महाभूत हैं। शब्दादि इसकी तन्मात्रायें ही हमारी इन्द्रियों के लिए विषय हैं। स्वभावतः ये विषय सुखदायी लगते हैं और इनमें हमारा राग-द्वेष होता है। अनुकूल होने पर विषय सुखदायी लगते हैं और उनमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति के कारण हम विषयों के अधीन हो जाते हैं, उनके बिना हम अपना जीवन निरर्थक समझने लगते हैं और विषय हमें अपने बन्धन में बाँध लेते हैं।

बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को  बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।

इस प्रकार जीव विषयासक्ति के बंधन में पड़कर पुनर्जन्म के दुःख भोगता है। किसी पुण्यकर्म के कारण सत्संग प्राप्त होता है तो जीव को अपनी समस्या का बोध होता है। वह अपने बंधन से छूटना चाहता है। उसके लिए वह परमात्मा का सहारा लेता है। निरन्तर प्रयासरत रहने पर जीव मुक्त हो सकता है।

यदि विषयों में अनुराग नहीं रह जाता, मनुष्य विरक्त हो जाता है तो वह मुक्त ही है। विषयों में राग न रहना ही वैराग्य या विरक्ति हैद्य विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्म से से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाएं अंकुरित होकर जीव को  पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता। मुक्त होने के लिए जीव को  प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है। फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। विषयों का यह वैराग्य ही मुक्ति का लक्षण है।

वासना को प्रेम समझने की नादानी

असली हीरे की खोज में कितनो ने ही कांच को  गले लगाने की भूल की है। इसमें असली हीरे का क्या कसूर जो कोई कांच से घायल होकर हीरे को  बदनाम करे। कुछ ऐसी ही दुविधा प्रेम-मोहब्बत के क्षेत्र में भी देखने को  मिलती है। ढ़ाई अक्षर प्रेम के। मोहब्बत यानि खुदा की इबादत, प्रेम यानि ईश्वर का वरदान। ऐसे और भी जाने कितने ही ऊंचे आदर्शों के धोखे में इंसान मन के बहकावे में आ जाता है।

कुछ तो उम्र का रसायन-विज्ञान और कुदरती आकर्षण ऐसा होता है कि इंसान इसमें डूबता ही जाता है। मन को  बहलाने और बुद्धि को  भ्रमित करने के लिये इंसान इस डूबने को  गंगा में डुबकी लगाना मान लेता है।

इन्सानी मनोविज्ञान के उन गुप्त फार्मूलों को  जानिए जो प्रेम और वासना की असली पहचान से पर्दा उठाते हैं-
- प्रेम हमेशा बढ़ता है, जबकि वासना समय के साथ-साथ घटती-बढ़ती रहती है।
- वास्तविक प्रेम कभी बदले के लिये नहीं होता, जबकि वासना की यदि पूर्ति न हो तो वह तत्काल क्रोध में बदल जाती है।
- प्रेम में मन और भावनाओं की नजदीकी अहम होती है, जबकि वासना में शारीरिक समीपता का आकर्षण प्रबल होता है।
- मदद, माफी, प्रोत्साहन, त्याग और आन्तरिक प्रसन्नता ये सभी प्रेम का परिवार हैँ।
- क्रोध,  चिड़चिड़ाहटडर, भयरोगघ्रणा और आत्मग्लानी ये सभी वासना के सगे संबंधी हैं।

काम की वासना इतनी प्रबल क्यों है ?

अगर कोई आपसे पूछे कि आप क्यों जीना चाहते हैं, तो आप कोई कारण न बता सकेंगे। जीना चाहते हैं, यह अकारण है, बस ऐसा है। असल में जो भी है, वह बस मिटना नहीं चाहता। होने में ही बने रहने की कामना छिपी है। जीवन की बचने की यह आकांक्षा ही आपको  काम वासना जैसी मालूम पड़ती है। यह बेहद गहरी बात है। इसी से आप जन्मे हैं, इसी से जीवन आपसे भी जन्मने के लिए आतुर है। और इसके पहले कि आपकी देह व्यर्थ हो जाए, वह जीवन जो आपने आवास बनाया था, नए आवास बनाने की को शिश करता है। इसीलिए काम की वासना उद्दाम है। कितना ही उपाय करें, वह मन को  जकड़ ही लेगी। आपके सब संकल्प, ब्रह्मचर्य के नियम, कसमें, प्रतिज्ञाएं पड़ी रह जाती हैं। और काम की वासना जब वेग पकड़ती है, तो लगता है कि आप आविष्ट हो गए, कोई बड़ी धारा आपको  खींचे लिए जा रही है और आप बहे जाते हैं। और समस्त अध्यात्म की खोज इस काम वासना के रूपांतरण में है, क्योंकि यह जो जीवन की धारा है, अगर यह बाहर की तरफ बहती रहे तो नई देह, नए शरीर पैदा होते रहेंगे। इस जीवन धारा के दो उपयोग हैं -बायोलॉजी के अर्थों में संतति, अध्यात्म के अर्थों में आत्मा। इससे शरीर भी पैदा हो सकते हैं, अगर यह बाहर जाए। और इससे आपकी आत्मा की किरण भी प्रकट हो सकती है, अगर यह भीतर आए। बुरे से बुरा आदमी भी, अनैतिक आदमी भी, कामुक आदमी भी काम वासना के संबंध में कुछ न कुछ करता रहता है। रोकने की को शिश करता है, संभालने की को शिश करता है। इस सारी को शिश में वासना विकृत हो जाती है। सुधरती नहीं, बदलती नहीं -और कुरूप हो जाती है। सारी दुनिया कुरूप काम वासना से भरी है। हजारों रूपों में काम वासना विकृत रोगों का रूप ले लेती है। यह ऐसा है, जैसे जो बिजली के संबंध में कुछ भी न जानता हो, वह बिजली के किसी उपकरण को  सुधारने में लग जाए। वह उसे और बिगाड़ देगा। अच्छा हो छूना ही मत, जब तक समझ न लो। ठीक समझ कर ही भीतर चलना, अन्यथा जिस शक्ति से आत्मा का जन्म हो सकता था, उसी से आत्मघात भी हो सकता है। फ्रायड के अध्ययन ने यह बात जाहिर कर दी है कि आदमी की सौ बीमारियों में निन्यानबे की वजह काम वासना की विकृति होती है। इसलिए तीन बातें सदा याद रखें। पहली, स्वाभाविक काम वासना को  अस्वाभाविक मत होने दें। जो स्वाभाविक है, उसे स्वीकार करें। अस्वाभाविक करने से उसके विकृत, परवर्टेड रूप पैदा हो जाएंगे। दूसरी बात खयाल रखना कि स्वाभाविक काम वासना को सिर्फ भोगना ही मत, भोग के साथ-साथ उस पर ध्यान भी करना। भोग में उतरना, लेकिन होश पूर्वक उतरना। यह पहचानने की को शिश करना कि उसमें कौन से सुख की, कौन से आनंद की उपलब्धि हो रही है। और तीसरी बात यह कि यह खोज भी जारी रखना कि जो सुख या शांति की झलक मिलती है, वह वस्तुतरू काम वासना के कारण मिलती है या कारण कोई और है। स्वाभाविक वासना हो, तो यह तीसरी बात समझने में आपको  ज्यादा देर नहीं लगेगी और पता चल जाएगा कि काम वासना के कारण सुख और आनंद की प्रतीति नहीं होती है। काम की तृप्ति में जो सुख मिलता है, उसका मौलिक कारण काम नहीं है। उसका मौलिक कारण ध्यान है, समाधि है। सेक्स के शिखर पर पहुंच कर एक क्षण को मन शून्य हो जाता है। इस शून्य में आपको  सुख की झलक मिलती है। आप उसमें इतने तल्लीन हो जाते हैं, जितने कभी किसी और में नहीं होते। उस तल्लीनता के ही कारण मन शांत हो जाता है। ध्यान, समाधि, योग -ये सब शांति के उसी एक क्षण की झलक पाने के उपाय हैं।

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