A JOURNEY IN TO HEALING

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who are mentally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like to come, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power.

समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।

You asked तुमने पूछा है

 तुमने पूछा है

क्या अपने गुरु का चित्र अपने गृह मन्दिर में रखना चाहिए ?
नीलम सिंह देहारादून।   

नीलम ! सबसे पहले तो तुम्हें यह स्वीकार करना होगा कि गुरु, र्इश्वर नहीं होता।
मुझे उन लोगों से बहुत चिढ़ होती है, जो अपने मार्ग दर्शक (गुरु) को र्इश्वर तुल्य मान कर उनका भी चित्र अपने गृह मन्दिर में रख कर उन्हें भी धूप अगरबत्ती का धुआं दिखाते रहते है। मेरा मानना है कि प्रत्येक मार्ग दर्शक (गुरु) नदी या सड़क पर बने उस पुल की भांति होता है, जिसका काम होता है- इस पार से उस पार तक पहुंचाना। पुल ने आपको इस पार से उस पार कर दिया तो उसके बाद पुल की भूमिका समाप्त। न तो पुल को आप अपने घर ले जा सकते है, और न ही पुल पर घर बनाया जाता है। ठीक इसी प्रकार गुरु भी आपको किसी अज्ञानता से ज्ञान का मार्ग दिखाता है, उसके बाद उसकी भूमिका समाप्त।

मेरा यह भी मानना है कि हम लोग जो भी कार्य करते हैं, उसे हम नहीं करते बल्कि किसी और के कार्य को पूरा करने में कुछ सहायता अवश्य प्रदान करते हैं। उसे यूं भी समझा जा सकता है। जैसे किसी राष्ट्र का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अथवा कोर्इ पदासीन उच्चाधिकारी अथवा किसी भी पद पर बैठा कोर्इ कर्मचारी अवकाश पर हो, या सेवामुक्त हो चुका हो अथवा मर गया हो। ठीक उसी कुर्सी पर कोर्इ दूसरा आकर बैठ जाता है पीछे वाले के छूटे कार्यो को आगे बढ़ाता ले जाता है। राष्ट्र चलते रहते हैं, कार्यालय चलते रहते हैं, काम होते रहते है। कुर्सी वहीं रह जाती है, उस पर बैठने वाले चेहरे बदलते रहते हैं। काम कभी रुकते नहीं। रिक्त स्थान पर उसी योग्यता वाले को बैठा दिया जाता है, जैसी योग्यता वाला पहले उसी कुर्सी पर बैठा था। आज भी तमाम न्यायालयों या बड़े सरकारी दफ्तरों में वह कुर्सी देखी जा सकती है, जिस पर कभी अंग्रेज बैठकर न्यायपालिका चलाया करते थे। कुर्सी वही है, जबकि तब से आज तक तमाम जज़ उस पर बैठे और चले गए। एक का अधूरा काम दूसरे ने पूरा किया। उसका छूटा किसी अन्य ने। यह सिलसिला निरन्तर जारी है, और रहेगा।
प्रकृति का भी यही सिद्धान्त है। समाज के किसी भी वर्ग हेतु किसी के भी द्वारा यदि कोर्इ कार्य किसी आत्मा (प्राणी) द्वारा किया जा रहा हो और किसी भी कारण वश वह काम अधूरा रह जाता है, अथवा वह प्राणि मृत्यु प्राप्त कर लेता है, तो प्रकृति उस काम को पूरा करवाने के लिए उसी योग्यता के अनुरूप किसी अन्य आत्मा (प्राणि) की तलाश करती है। मिल जाने पर उससे उस अधूरे कार्य को पूरा करवा लेती है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस अधूरे कार्य के पूरा हो जाने पर वास्तविक प्रसन्नता किसको होगी ? जिसने काम पूरा किया उसको या जिसका काम पूरा हुआ उसको ? निश्चित रूप से जिसका काम जिसका स्वप्न, जिसकी अभिलाषा पूरी हुर्इ होगी। वास्तविक प्रसन्नता उसी को होगी। मेरा निजि अनुभव बताता है। मेरी एक पुस्तक अवध के तालुकेदार प्रकाशित हुर्इ। विगत एक सौ पचीस वर्षो से इस विषय पर एक भी पुस्तक नहीं थी। महाराजा बलरामपुर श्री धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रेरणा द्वारा मैने तीन वर्षो के शोध के परिणाम स्वरूप उसका सृजन किया था। पुस्तक छप गर्इ, मेरी भूमिका समाप्त। उसी दौरान लखनऊ के एक काफी बड़े सर्राफ सेठ ओम प्रकाश खुनखुन जी ने मुझे कर्इ बार कहा कि लखनऊ की बारादरी में इसका भव्य विमोचन समारोह कराने का विचार है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल (तब विष्णुकान्त शास्त्री जी थे) से पुस्तक का विमोचन कराया जाएगा। मै धीरे से मुस्कराता और हमेशा उनसे यही कहता- यह मेरी सोच या मेरी प्रसन्नता में शामिल नहीं है। आपको यदि प्रसन्नता मिलती है तो इसे अवश्य करें, लेकिन मेरी उपस्थिति अनिवार्य न समझें।
पिछले वर्ष मेरी एक पुस्तक हिमाचल का हाटी समुदाय प्रकाशित हुर्इ। वहाँ के लोगों ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री से उसका विमोचन करने की अनुमति प्राप्त कर ली। मुझे भी सूचित किया गया। यहाँ भी मैं अपनी राय पर कायम था। पुस्तक लेखन का वह काम भी किसी और आत्मा का था जिसे मेरे माध्यम से पूरा कराया गया। मुझे न कोर्इ खुशी है न गम। कुछ खुशी है तो केवल इस बात की, कि मैने किसी के कार्य को पूरा कर दिया। निश्चित दिन (शायद 4 मर्इ 2011) को पुस्तक का विमोचन हुआ, लेकिन मेरी अनुपस्थिति में। शायद तुम्हें तुम्हारे सवाल का जवाब मिल गया होगा. आज बस इतना ही.

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नरिंदर ! तुमने पूछा है कि उपासना का आसन कैसा हो ?
नरिंदर मेहता, पानीपत


र्इश्वर के ध्यान के लिए आसनों के विषय में भी लोगों की अनेक प्रकार की धारणाएँ बनी हुर्इ हैं। पद्मासन, सिद्धासन या वज्रासन लगाएंगे तभी ध्यान होगा अथवा इस प्रकार बैठेंगे तभी ध्यान होगा] किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। र्इश्वर की उपासना के लिए  शरीर का स्थिर होना तो आवश्यक है। शरीर की स्थिरता के लिए हम किसी भी आसन को लगा सकते हैं जो हमारे अनुकूल हो] वह चाहे सिद्धासन हो] सुखासन हो या कोर्इ भी। बलिक देखने में आया है प्रारंभिक साधकों के लिए पद्मासन, सिद्धासन आदि कठिन होते हैं। उसमें लम्बे काल तक साधक बैठ नहीं सकते। इसलिए जो कोर्इ सरल आसन] जिससे लम्बे काल तक सीधा होकर बैठ सके] बिना कष्ट के उसको लगा सके] उस आसन को लगाना चाहिए। अच्छे स्तर का ध्यान] उँचे स्तर का ध्यान धरती के ऊपर आसन लगा के सीधे होकर बैठने से होता है लेकिन यदि किसी व्यकित के कमर में दर्द है] पाँव में दर्द है] आसन लगा नहीं सकता है] चौकड़ी (पालथी)  लगा नहीं सकते है] इसलिए इनको रोकना पड़ता है। अत: भौतिक वस्तु से जब विषयों का सेवन हो रहा होता है तो ये बाधा उत्पन्न तो वह व्यक्ति बिना नीचे धरती पर बैठकर भी] कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकता है] आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकता है। बल्कि यदि इतना दर्द हो या प्रतिकूलता हो कि बैठ भी न सके तो पलंग पर] बिस्तर के ऊपर लेटकर भी ध्यान कर सकता है। ध्यान करने की मुख्य क्रिया चित्त की एकाग्रता है न कि आसन लगाना। हाँ] धरती पर सीधे बैठ करके ध्यान करने में आलस्य प्रमाद कम आता है] ध्यान सरलता से हो जाता है। आराम पूर्वक कुर्सी पर बैठने में] बिस्तर पर बैठने में यह बाधा उत्पन्न हो सकती है कि व्यक्ति को नींद आ सकती है] आलस्य आ सकता है] इसलिए जो सामर्थ्यवान है] स्वस्थ है] वह धरती पर आसन लगाकर] सीधा होके बैठे और ध्यान लगाये। जो पूर्ण स्वस्थ नहीं है] कोर्इ बाधा है तो आराम पूर्वक कुर्सी पर भी बैठ सकता है] बिस्तर पर भी बैठकर ध्यान कर सकता है। मुख्य कार्य होता है मन को बाह्य विषयों से रोक करके र्इश्वर की ओर लगाना. (25/Jan/12)

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शैली तुमने पूछा है कि
निराकार र्इश्वर की उपासना कैसे की जाए निराकार र्इश्वर का ध्यान कैसे किया जाए 


र्इश्वर का ध्यान करने वाले साधकों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि निराकार र्इश्वर की उपासना कैसे की जाए] मन को टिकाने के लिए कोर्इ न कोर्इ तो आधार होना ही चाहिए] चाहे वह आधार कोर्इ मूर्ति हो कोर्इ प्रकाश हो] कोर्इ दीपक हो] कोर्इ अगरबत्ती हो, कोर्इ लौ हो] कोर्इ बिन्दु हो] कोर्इ चिह्न हो। कोर्इ न कोर्इ वस्तु तो होनी चाहिए। बिना किसी आधार के मन को कैसे टिका पायेंगे] इस विषय में ध्यान देने की बात है कि मन को टिकाने के लिए आश्रय की आवश्यकता तो है, हम भी कहते हैं कि आश्रय तो लेना ही चाहिए किन्तु वह आश्रय र्इश्वर का ही होना चाहिए। हम ध्यान तो करना चाहे र्इश्वर का किन्तु आश्रय लें प्रकृति का तो ये तो गड़बड़ हो जायेगी इसलिए आश्रय] वह लेना है जो र्इश्वर का ही गुण-कर्म-स्वभाव हो।
शब्द] स्पर्ष रूप] रस] गंध] भार] लंबार्इ] चौड़ार्इ गुण प्रकृति के हैं और प्रकृति से बने पदार्थों में भी आते हैं] किन्तु ये गुण र्इश्वर में नहीं है। इनका आश्रय हम लोग लेंगे, तो यह प्रकृति का आश्रय हो गया। र्इश्वर का आश्रय कैसे कहलायेगा] यहाँ प्रकृति के आश्रय को लेकर कहा जा रहा है कि र्इश्वर का आश्रय ले रहे हैं। यह मिथ्या धारणा र्इश्वर का गुण बल है, र्इश्वर का गुण दया है] र्इश्वर का गुण न्याय है इत्यादि। तो हमें र्इश्वर की उपासना करने के लिए और अपने मन को टिकाने के लिए र्इश्वर के गुणों का ही आश्रय लेना चाहिए। उन गुणों को लेकर के ही मन को टिका सकते हैं] और ध्यान कर सकते हैं।

शैली! इसे भी जानो। निराकार का आश्रय

यदि हम किसी रूप का आश्रय ले करके र्इश्वर का ध्यान कर रहे हैं तो वह ध्यान होगा ही नहीं, वहाँ तो वृत्ति बन रही है, क्योंकि रूप नेत्र का विषय है और हम नेत्र से रूप को देखकर वृत्ति बनाये हुए हैं, वृत्ति निरोध कैसे हो पायेगा] र्इश्वर का ध्यान करने के लिए वृत्ति-निरोध कहा गया है। अर्थात मन के माध्यम से, इनिद्रयों के माध्यम से, जो प्राकृतिक विषय हैं] 5 भूत हैं – शब्द] स्पर्श] रूप] रस] गंध उनका हम ग्रहण न करें। यदि ध्यान काल में रूप की अनुभूति कर रहे हैं, तो वृत्ति-निरोध होगा ही नहीं, वहाँ तो वृत्ति चल रही है। उस वृत्ति को रोक करके ही र्इश्वर का ध्यान हो सकता है, इसलिए रूप के आश्रय का निषेध है। इसी प्रकार यदि हम शब्द का आश्रय लेकर के र्इश्वर का ध्यान करते हैं, तो उसका भी निषेध है। क्योंकि वह भी इनिद्रय का विषय है। यह आवश्यक है कि हम उपासना काल में वृत्तियों का निरोध करें। हम ध्यान करने जा रहे हैं हो जाएगी। र्इश्वर का ध्यान र्इश्वर का ही आश्रय लेना है।
र्इश्वर का] किन्तु प्रकृति का आश्रय ले कर प्रकृति का ध्यान र्इश्वर का आश्रय लेना अर्थात र्इश्वर के गुणों का आश्रय करने लग जायें, यह उचित नहीं है अत: उपासना काल में लेना। र्इश्वर का गुण आनन्द है] र्इश्वर का गुण ज्ञान है] शब्द] स्पर्श] रूप] रस] गंध गुणवाले प्राकृतिक पदार्थों का आश्रय नहीं लेना चाहिए।

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सकारात्मक सोच का परिणाम

सुमन,
फोन पर तुमने बड़ा अच्छा सवाल पूछा था। 
तुमने पूछा था कि क्या किसी दूसरे के लिए सोची गयी बात भी पूरी होती है ? हाँ सुमन, निश्चित पूरी होती है, बशर्ते कि उसमे कोई स्वार्थ निहित न हो। मै तुम्हें अपनी आप बीती घटना सुनाता हूँ। बात लखनऊ की है। मै निमदीपुर के राजा ध्यान पाल सिंह के पास उनकी लखनऊ वाली कोठी मे बैठा हुआ था. उनकी धर्म पत्नी भी साथ थीं। आम की फसल के दिन थे। लखनऊ मे ही मेरे एक अति घनिष्ठ श्री दत्ता साहब रहते हें। एक बार मैंने दत्ता साहब कि पत्नी कामिनी जी से कहा था कि कभी आपको डाल के पके आम खिलाऊंगा। उन दिनों आम कि फसल पक रही थी। मैंने राजा साहब से कहा कि मेरी इच्छा कहीं आम देने कि है। बाज़ार मे कृत्रिम रूप से पके आम ही मिल रहे हैं, यदि डाल के पके आम मिले तो बताइएगा। उन्होने बताया कि अभी एक सप्ताह के बाद ही ऐसे आम मिल सकेंगे।

उसके चौथे या पांचवे दिन देहरादून से मेरे एक मित्र अमित सिंह सपरिवार कार द्वारा लखनऊ आए। जिस समय मुझे उनके लखनऊ पहुँचने का समाचार मिला उस समय मै कामिनी दत्ता जी के यहाँ ही बैठा हुआ था। मैंने उन्हे वही बुलवा लिया। कार से उतरते ही उन्होने अपनी कार के ड्राईवर से एक बोरा उतरवा कर घर के भीतर भिजवा दिया और मेरी तरफ घूम कर बोले- रास्ते मे अपने गाँव होते हुये आया हूँ। वहीं से आपके लिए अपनी बगिया से डाल के पके कुछ आम लाया हूँ। जब वो यह लाइन बोल रहे थे, उस समय मै मन ही मन मुस्कुराते हुए उस ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था, जिसने मेरी सोच कि तरंगों को किस प्रकार साकार किया।
एक रियासत के राजा से आम की बात की थी और जहां देने की सोची थी, आम ठीक वहीं पहुँच गए (वह भी एक रियासत से) जहां मै उन्हें पहुंचाना चाहता था। अमित सिंह मुरादाबाद के निकट गौरहा रियासत से हैं।
सुमन, शायद तुम्हें तुम्हारा उत्तर मिल गया होगा। आज बस इतना ही। 

र्इश्वर के गुणों से र्इश्वर का ध्यान 
र्इश्वर के गुणों से र्इश्वर का ध्यान प्रश्न आता है कि जब र्इश्वर में रूप आदि गुण नहीं हैं तो उसका ध्यान कैसे किया जाए,  इसका सीधा उत्तर यह है कि - हाँ, निराकार का भी ध्यान होता है। हम सभी निराकार वस्तुओं का भी ध्यान करते हैं। उदाहरण के रूप में - क्या वायु किसी को दिखार्इ देती है] वायु का कोर्इ रूप नहीं, उसका कोर्इ लाल, नीला, पीला रंग नहीं है। वायु निराकार है लेकिन हम वायु का ध्यान करते हैं। वायु की अनुभूति करते हैं। प्रश्न आता है कि किसके माध्यम से वायु की अनुभूति करते हैं, उत्तर है कि वायु के गुणों के माध्यम से अनुभूति करते हैं जैसे कि वायु ठण्डी चल रही है तो हम अनुभूति करेंगे कि वायु ठण्डी है। वायु गरम है तो गर्मी के माध्यम से हम वायु की अनुभूति कर लेते हैं। ठीक ऐसे ही र्इश्वर में रूप आदि गुण नहीं हैं परन्तु उसमें अनन्त गुण हैं यथा बल गुण है, दया गुण है, न्याय गुणग्रंथों में र्इश्वर के विषय में आए हुए प्रकाश शब्द का अर्थ है इत्यादि। इन गुणों के माध्यम से हम र्इश्वर का ध्यान कर भौतिक प्रकाश नहीं लेना चाहिए। प्रकाश का अर्थ ज्ञान सकते हैं, करना चाहिए। जैसे कि हे र्इश्वर! आप न्यायकारी हैं, दयालु हैं, सृष्टि के रचयिता हैं, सृषिट के रक्षक हैं, पालक हैं, पोषक हैं। हे र्इश्वर ! आप महान ज्ञानी हैं, महान दयालु हैं,कर्म फल दाता हैं इत्यादि। 

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उपासना का स्थान कैसा होना चाहिए।
ऋचा मेहता यमुना नगर हरियाणा।

प्राय: देखने] सुनने में आता है और लोगों की ऐसी मान्यताएँ भी बनी हुइर्ं हैं कि र्इश्वर की पूजा, भकित, ध्यान, उपासना मंदिर में होती है, किसी पहाड़ विशेष में ही होती है, नदी के किनारे होती है, जंगल में होती है। इन्हीं जगहों पर उपासना हो सकती है, सामान्य स्थानों में नही हो सकती, यह मान्यता ठीक नहीं है। 
र्इश्वर की उपासना के लिए स्थान का इतना महŸव नहीं है, जितना कि मन की एकाग्रता, र्इश्वर के प्रति समर्पण, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा, रूचि आदि का है। हाँ, इतनी बात तो अवश्य है, स्थान शान्त होगा, एकान्त होगा, रमणीय होगा, स्वच्छ होगा, कोलाहल से रहित होगा तो वहाँ पर अपेक्षाकृत बाधा कम होने के कारण ध्यान अच्छा लगेगा।
लेकिन यदि मन के ऊपर नियन्त्रण हो, र्इश्वर के प्रति रुचि हो, प्रेम हो और प्राणायाम के माध्यम से विधिवत मन को रोक करके मन्त्रों के माध्यम से उसका ध्यान किया जाए तो ध्यान कहीं पर भी लग सकता है। घर से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। घर में ध्यान लग सकता है, किसी कमरे में लग सकता है। किसी बिस्तर पर लग सकता है, कुर्सी पर भी लग सकता है।

इसी प्रकार दिशा की बात भी आती है कि कौन सी दिशा में बैठ करके र्इश्वर का ध्यान करें। दिशा की भी कोर्इ विशेष अपेक्षा नहीं है। पूर्व, पशिचम, उत्तर, दक्षिण किसी भी दिशा में र्इश्वर का ध्यान कर सकते हैं। जिधर से शुद्ध वायु आती हो, सूर्य उदय होता हुआ, अस्त होता हुआ दिखार्इ देता हो, जिधर पानी हो, समुद्र हो, नदी हो, तालाब हो, झरना हो तो ऐसी परिस्थितियों का मन की प्रसन्नता, एकाग्रता पर प्रभाव पड़ता है। लेकिन यह सब बातें भी गौण है। यदि र्इश्वर में ध्यान करने की रुचि है, प्रेम है तो इसका कोर्इ महŸव नहीं है क्योंकि ध्यान आँख बंद करके होता है और आँख बन्द करने के उपरान्त हम कहाँ बैठे हैं, किस दिशा में बैठे हैं इसकी विस्मृति हो जाती है बल्कि इनको भूलाना पड़ता है। इसलिए दिशा स्थान आदि का भी इतना महŸव नहीं है। आज बस इतना ही. (19/01/12)

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दीक्षा! तुमने पूछा है कि 
क्या मैं मूर्ति पूजा में विश्वास करता हूँ, यदि नहीं, तो क्यों?


मैं जानता था कि एक दिन यह सवाल मुझसे पूछा जाएगा। लेकिन इतनी जल्दी और यहाँ के रूढ़िवादी दक़ियानूसी विचारधारा से ग्रस्त समाज का कोई बच्चा मुझसे यह सवाल पूछेगा, इसकी मुझे आशा न थी।
स्कूल में जब तुमने यह सवाल पूछा था तब उत्तर देते समय मैंने यह भी कहा था कि मैं सच ही बोलूँगा। हाँ तुम्हारे उस सवाल  का उत्तर उतना छोटा नहीं था जितना मैंने बताया था। मैं उस सवाल का जवाब विस्तार में देना चाहता था। उस दिन स्कूल में समय का अभाव था, इसलिए विस्तार से न बता सका। इसलिए इस पुस्तिका के माध्यम से तुम्हें तुम्हारा उत्तर मिल जाएगा।
इंटरनेट पर मेरा ब्लॉग है जिसका नाम है >  http://ajourneyintohealing.blogspot.in/    

क्या मूर्ति पूजा करना चाहिए?

।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1
भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।

वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं। भगवान कृष्ण के काल में लोग इंद्र नामक देवता से जरूर डरते थे। कृष्ण ने ही उक्त देवता के डर को लोगों के मन से निकाल था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति- शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला रहा होगा।
पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़ा रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। इसके अलावा अथर्ववेद की रचना के बाद वे यज्ञ के द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अदैत्वाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है।

शिवलिंग की पूजा का प्रचनल पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिंदू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगी।

न तस्य प्रतिमा:
'न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।'- यजुर्वेद 32वां अध्याय।
अर्थात, जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रो से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यन्‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है।- यजुर्वेद

अमूर्त है वह-
केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं हैं, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं-जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ 'ईश्वर' नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और साँस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही 'निराकार सत्य' को मानते हैं। यही सनातन सत्य है।

स्‍पष्‍ट है कि‍ वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है। कि‍सी मूर्ति‍ में ईश्‍वर के बसने या ईश्‍वर का प्रत्‍यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्‍मत नहीं है। जो वेदसम्मत नहीं वह धर्मविरुद्ध है।

भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्‍य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अप‍कीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।

जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा अजन्मा है और अमूर्त है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है। यह सही भी है कि आज तक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनी है। देवी, देवताओं, पितरों, गुरुओं और भगवानों की मूर्ति बनी है।

ओ माई गॉड में एक संवाद है कि लोगों से उनका धर्म छीनोने तो वे तुम्हें अपना धर्म बना लेंगे। आज तक दुनिया में यही होता आया है अवतारियों ने लोगों से उनका अंधविश्वास छीनकर उन्हें वेद के सच्चे मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाया तो लोगों ने उस मार्ग पर चलने के बजाय उन अवतारियों को ही पूजना शुरू कर दिया। भगवान बुद्ध ने कहा था कि मेरी मूर्ति बनाकर मुझे पूजना मत लेकिन आज सबसे ज्यादा मूर्तियां उन्हीं की बनी हुई है।

तब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिंदू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?
हालांकि मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्ति पूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्ति की पूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपरासन करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।
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ओशो जीवन रहस्य के अनुसार :- मूर्ति पूजा का विज्ञान

जिन लोगों ने भी मूर्ति विकसित की होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था...

मूर्ति-पूजा शब्द सेल्फ कंट्राडिकटरी है। इसीलिए जो पूजा करता है वह हैरान होता है कि मूर्ति कहां? और जिसने कभी पूजा नहीं की वह कहता है कि इस पत्थर को रख कर क्या होगा? इस मूर्ति को रख कर क्या होगा? ये दो तरह के लोगों के अनुभव हैं, जिनका कहीं तालमेल नहीं हुआ है। और इसीलिए दुनिया में बड़ी तकलीफ हुई है।

आप मंदिर के पास से गुजरेंगे तो मूर्ति दिखाई पड़ेगी, क्योंकि पूजा के पास से गुजरना आसान नहीं है। तो आप कहेंगे, इन पत्थर की मूर्तियों से क्या होगा? लेकिन जो उस मंदिर के भीतर कोई एक मीरा अपनी पूजा में लीन हो गई है, उसे वहां कोई भी मूर्ति नहीं बची। पूजा घटित होती है, मूर्ति विदा हो जाती है। मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, मूर्ति खो जाती है।

तो वह जो हमें दिखाई पड़ती है वह इसीलिए दिखाई पड़ती है कि हमें पूजा का कोई पता नहीं है। और दुनिया में जैसे-जैसे पूजा कम होती जाएगी, वैसे-वैसे मूर्तियां बहुत दिखाई पड़ेंगी। और जब बहुत मूर्तियां दिखाई पड़ेंगी और पूजा कम हो जाएगी तो मूर्तियों को हटाना पड़ेगा, क्योंकि पत्थरों को रख कर क्या करिएगा? उनका कोई प्रयोजन नहीं है। साधारणतः लोग सोचते हैं कि जितना पुराना आदमी होता है, जितना आदिम, उतना मूर्ति-पूजक होता है। जितना आदमी बुद्धिमान होता चला जाता है, उतना ही मूर्ति को छोड़ता चला जाता है। सच नहीं है यह बात। असल में पूजा का अपना विज्ञान है। वह जितना ही हम उससे अपरिचित होते चले जाते हैं, उतनी ही कठिनाई होती चली जाती है।

इस संबंध में एक बात और आपको कह देना उचित होगा। हमारी यह दृष्टि नितांत ही भ्रांत और गलत है कि आदमी ने सभी दिशाओं में विकास कर लिया है। जब हम कहते हैं विकास, तो उससे भ्रम पैदा हित है कि सभी दिशाओं में विकास हो गया होगा, इवोल्यूशन हो गई होगी। आदमी की जिंदगी इतनी बड़ी चीज है कि अगर आप एकाध चीज में विकास कर लेते हैं तो आपको पता ही नहीं चलता कि आप किसी दूसरी चीज में पीछे छूट जातें हैं।

अगर आज विज्ञान पूरी तरह विकसित है, तो धर्म के मामले में हम बहुत पीछे छूट गए हैं। कभी धर्म विकसित होता है, तो विज्ञान के मामले में पीछे छूट जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि एक आयाम में हम कुछ जान लेते हैं, दूसरे आयाम को भूल जाते हैं।

अठारह सौ अस्सी में यूरोप में अल्टामीरा की गुफाएं मिली हैं। उन गुफाओं में बीस हजार साल पुराने चित्र हैं, और रंग ऐसा है जैसे सांझ को चित्रकार ने किया हो। डान मार्सिलानो ने, जिसने वे गुफाएं खोजीं, उस पर सारे यूरोप में बदनामी हुई उसकी। लोगों ने यह शक किया कि ये अभी इसने पुतवा कर रंग तैयार करवा लिए हैं, ये अभी गुफा में रंग पोते गए हैं। और जो भी चित्रकार देखने गया उसी ने कहा कि यह मार्सिलानो की धोखाधड़ी है, इतने ताजे रंग पुराने तो हो ही नहीं सकते।

उन चित्रकारों का कहना भी ठीक ही था, क्योंकि वानगोग के चित्र सौ साल पुराने नहीं हैं, लेकिन सब फीके पड़ गए हैं। और पिकासो ने अपनी जवानी में जो चित्र रंगे थे, उसके बूढ़े होने के साथ वे चित्र भी बूढ़े हो गए हैं। आज सारी दुनिया में किसी भी कोने में, चित्रकार जिन रंगों की सौ साल में वे फीके हो ही जाने वाले हैं।

लेकिन जब मार्सिलानो की खोज पूरी तरह सिद्ध हुई, और उन गुफाओं का निर्णायक रूप से निष्कर्ष निकल गया कि वे बीस हजार साल पुरानी हैं, तो बड़ी मुश्किल हो गई। क्योंकि जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, रंग बनाने के संबंध में वे हम से बहुत विकसित रहे होंगे। हम आज चांद पर पहुंच सकते हैं, लेकिन सौ साल से ज्यादा चलने वाला रंग बनाने में हम अभी समर्थ नहीं हैं। यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। और बीस हजार साल पहले जिन लोगों ने वे रंग बनाए होंगे, वे कुछ कीमिया जानते थे, जो हमें बिलकुल पता नहीं है।

इजिप्त की ममीज हैं कोई दस हजार साल पुरानी! आदमी के शरीर हैं, वे जरा भी नहीं खराब हुए हैं। वे ऐसे ही रखे हैं जैसे कल रखे गए हों। और आज तक भी राज नहीं खोल जा सका है कि किन रासायनिक द्रव्यों का उपयोग किया गया था जिससे कि लाशें इतनी सुरक्षित दस हजार साल तक रह सकीं हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि वे ठीक वैसी ही हैं जैसे कल आदमी मरा हो। किसी तरह का डिटिरिओरेशन, किसी तरह का उनमें ह्रास नहीं हुआ है। पर हम साफ नहीं कर पाए अभी तक कि कौन से द्रव्यों का उपयोग हुआ है।

इजिप्त के पिरामिडों पर जो पत्थर चढ़ाए गए हैं, अभी भी हमारे पास कोई क्रेन नहीं है जिनसे हम उन्हें चढ़ा सकें। आदमी के तो वश की बात ही नहीं है। लेकिन जिन लोगों ने वे चढ़ाए थे पत्थर उनके पास क्रेन रही होगी, इसकी संभावना कम मालूम होती है। तो जरुर उनके पास कोई और टेक्नीक, और तरकीबें रही होंगी जिनसे वे पत्थर चढ़ाए गए हैं, जिनका हमें कोई अंदाज नहीं है।
और जीवन के सत्य बहुयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और एक ही काम तक पहुंचने की बहुत सी टेक्नीक और बहुत सी विधियां हो सकती हैं। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तो हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते हैं।

मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी। सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो कॉस्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है वह। जिन लोगों ने भी मूर्ति विकसित की होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था।

-ओशो
पुस्तकः जीवन रहस्य, प्रवचन नं. 4 से संकलित
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मूर्ति वही पूजते हैं जो पूजा करना नहीं जानतेः ओशो

मूर्ति-पूजा का सारा आधार इस बात पर है कि आपके मस्तिष्क में और विराट परमात्मा के मस्तिष्क में संबंध हैं। दोनों के संबंध को जोड़ने वाला बीच में एक सेतु चाहिए।

संबंधित हैं आप, सिर्फ एक सेतु चाहिए। वह सेतु निर्मित हो सकता है, उसके निर्माण का प्रयोग ही मूर्ति है। और निश्चित ही वह सेतु मूर्त ही होगा, क्योंकि आप अमूर्त से सीधा कोई संबंध स्थापित न कर पाएंगे।

आपको अमूर्त का तो कोई पता ही नहीं है। चाहे कोई कितनी ही बात करता हो निराकार परमात्मा की, अमूर्त परमात्मा की, वह बात ही रह जाती है, आपको कुछ ख्याल में नहीं आता। असल में आपके मस्तिष्क के पास जितने अनुभव हैं वे सभी मूर्त के अनुभव हैं, आकार के अनुभव हैं।

निराकार का आपको एक भी अनुभव नहीं है। जिसका कोई भी अनुभव नहीं है उस संबंध में कोई भी शब्द आपको कोई स्मरण नही दिला पाएगा। और निराकार की बात आप करते रहेंगे और आकार में जीते रहेंगे।

अगर उस निराकार से भी कोई संबंध स्थापित करना हो, तो कोई ऐसी चीज बनानी पड़ेगी जो एक तरफ से आकार वाली हो और दूसरी तरफ से निराकार वाली हो।

यही मूर्ति का रहस्य है। इसे मैं फिर से समझा दूं आपको। कोई ऐसा सेतु बनाना पड़ेगा जो हमारी तरफ आकार वाला हो और परमात्मा की तरफ निराकार हो जाए। हम जहां खड़े हैं वहां उसका एक छोर तो मूर्त हो, और जहां परमात्मा है, दूसरा छोर उसका अमूर्त हो जाए, तो ही सेतु बन सकता है।

अगर वह मूर्ति है तो फिर सेतु नहीं बनेगा, अगर वह मूर्ति बिलकुल अमूर्त है तो भी सेतु नहीं बनेगा। मूर्ति को दोहरा काम करना पड़ेगा। हम जहां खड़े हैं वहां उसका छोर दिखाई पड़े, और जहां परमात्मा है वहां निराकार में खो जाए।

इसलिए यह मूर्ति-पूजाशब्द बहुत अदभुत है। और जो अर्थ मैं आपसे कहूंगा, वह आपके ख्याल में कभी भी नहीं आया होगा। अगर मैं ऐसा कहूं कि मूर्ति-पूजा शब्द बड़ा गलत है, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी।

असल में मूर्ति-पूजा शब्द बिलकुल ही गलत है। गलत इसलिए है कि जो व्यक्ति पूजा करना जानता है उसके लिए मूर्ति मिट जाती है और जिसके लिए मूर्ति दिखाई पड़ती है उसने कभी पूजा की नहीं है, उसे पूजा का कोई पता नहीं है।

और मूर्ति-पूजा शब्द में हम दो शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं-एक पूजा का और एक मूर्ति का-ये दोनों एक ही व्यक्ति के अनुभव में कभी नहीं आते।

इनमें मूर्ति शब्द तो उन लोगों का है जिन्होंने कभी पूजा नहीं की; और पूजा उनका है जिन्होंने कभी मूर्ति नहीं देखी। अगर इसे और दूसरी तरह से कहा जाए तो ऐसा कहा जा सकता है कि पूजा जो है वह मूर्ति को मिटाने की कला है। वह जो मूर्ति है आकार वाली उसको मिटने की कला का नाम पूजा है।

उसके मूर्त हिस्से को गिराते जाना है, गिराते जाना है! थोड़ी ही देर में वह अमूर्त हो जाती है। थोड़ी ही देर में, इस तरफ जो मूर्त हिस्सा था वहां से शुरुआत होती है पूजा की, और जब पूजा पकड़ लेती है साधक को तो थोड़ी ही देर में वह छोर खो जाता है और अमूर्त प्रकट हो जाता है।

साभारः ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली
पुस्तकः गहरे पानी पैठ
प्रवचन नं. 4 से संकलित है
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वेद में मूर्ति‍ पूजा के वि‍षय में क्‍या कहा गया है ?

यजुर्वेद के बत्‍तीसवें अध्‍याय में परमात्‍मा के वि‍षय में कहा गया है कि‍ अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चन्‍द्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है. वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है. उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है (न तस्‍य प्रति‍मा). उसका नाम ही अत्‍यन्‍त महान है. वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है. स्‍पष्‍ट है कि‍ वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है. कि‍सी मूर्ति‍ में ईश्‍वर के बसने या ईश्‍वर का प्रत्‍यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्‍मत नहीं है.

सितम्बर 2013
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