A JOURNEY IN TO HEALING

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who are mentally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like to come, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power.

समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।

विचार शक्ति

विचार शक्ति
The Divine Power of Thought


हमारे विचारों में होती है दिव्य-शक्ति। प्राचीन ऋषि मुनियों यह मानते थे कि मानव मस्तिष्क में उत्पन्न विचारों में एक दिव्य शक्ति होती है और वह असाधारण एवं आलौकिक शक्ति मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसे हम मन की संकल्प शक्ति भी कह सकते हैं। यह वह शक्ति होती है जो विचार के मन में उदय होते ही उस विचार को कार्य रूप में संपादित करने के लिए उसी क्षण क्रियाशील हो जाती है।  जैसे ही कोई विचार उत्पन्न होता है तो यही संकल्प शक्ति मन के द्वारा दिये जाने वाले आदेश को पूरा करने के लिये तैयार हो जाती है |

होता यह है कि जब भी कोई विचार क्रियाशील होने लगता है उसी क्षण हमारे अंतःकरण की सतह पर किसी दूसरे विचार की लहर विकल्प के रूप में आ खड़ी होती है और हमारे मन की वह संकल्प शक्ति अपना पहला काम अधूरा छोड़कर, दूसरा आदेश पूरा करने में लग जाती है और यह क्रम चलता ही रहता है। इस तरह पूर्ण रूप से सामर्थ्यवान तथा शक्तिमान होने के बावज़ूद भी हमारी यह संकल्प शक्ति कई विचारों के एक साथ उठ खड़े होने के कारण सफलता पूर्वक अपना कार्य नहीं कर  | इस तरह मानव-मन की संकल्प शक्ति की यह दुर्दशा होती है |पाती
मनुष्य अपने अज्ञान के कारण ही अपनी इस दिव्य शक्ति को कमज़ोर करता है। यदि मनुष्य केवल एक ही विचार को केन्द्र बनाकर मन में कोई इच्छा करें, उसमें आने वाली विरोधी इच्छाओं या विचारों पर नियंत्रण करें तो वह इच्छा ज़रूर पूरी होती है |
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अर्थात् मतिभ्रम व्यक्ति विनष्ट हो जाया करता है|वस्तुतः, समाहित या एकाग्र-चित्त ही हमारे मन की गतिशीलता को स्थिर करता है और उचित मार्ग पर चलने के लिए दिशा-निर्देश करता है| तभी तो फलीभूत इच्छाओं के अनुरूप ही हमारा व्यक्तित्व ढलता है|उदहारण के लिए-आज यदि कोई व्यक्ति ए़क सफल वैज्ञानिक है तो ज़रूर उसने एक वैज्ञानिक होने की इच्छा को सदैव बल दिया होगा |अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता का भाव बनाये रखकर ,उसे सम्पूर्ण करने के लिए विश्वास और ईमानदारी से प्रयास किए होंगे तथा बीच-बीच में विरोधी इच्छाओं के उदय से मानसिक-संतुलन को बिगड़ने नहीं दिया होगा |

अंततः,यही कहना चाहती हूँ कि अपने सामान्य जीवन में भी, जब कभी हमें कोई साधारण सी भी अनुभूति,दिव्य-अनुभूति, सुखानुभूति या सौन्दर्यानुभूति होती है तो उसे हम किसी न किसी प्रकार समाज में व्यक्त करना चाहते हैं, किसी को बताना चाहते हैं या किसी के साथ अपने विचारों को बाँटना चाहते हैं तभी तो विभिन्न विषयों पर ज्ञान-विज्ञान के अनेक ग्रंथों के     साथ-साथ प्रत्येक भाषा में कवि  भी दिखाई देते हैं |दूसरे,यह भी तो यदि हम चाहते हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी होती रहें, तो बस हमें इतना ही तो करना है कि अपनी इस दिव्य-शक्ति, अपने मन की संकल्प शक्ति को एकाग्रता एवं स्वतंत्रता से काम करने दें अर्थात् अपनी ढेर सारी विरोधी इच्छाओं और अपने अनगिनत संशयों के भार से उसे मुक्त रखते हुए, हम एक समय में एक   ही सद्-विचार पर केंद्रित होना सीख लें ताकि हमारे विचारों की सकारात्मक ऊर्जा सर्वत्र फैलती रहे और हमारी इच्छाएँ भी फलती-फूलती रहें और हम, यथाम्भव दूसरों को भी फलते-फूलते देखकर फूले न समायें |
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सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति
किसी भी शक्ति का उपयोग रचनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों की रास्तों से होता है। इसी तरह विचारों की शक्ति भी है। उसको पुरोगामी होने से मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुल जाता है और प्रतिगामी होने पर वही शक्ति उसके विनाश का कारण बन जाती है। अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, असन्तुलित बनाते हैं। जबकि सद्विचारों में डूबे हुए मनुष्य को धरती स्वर्ग जैसी लगती है।
मानव जीवन विचारों का प्रतिबिम्ब
मनुष्य का जीवन उसके विचारों का प्रतिबिम्ब है। सफलता- असफलता, उन्नति- अवनति, तुच्छता- महानता, सुख- दुःख, शांति- अशांति आदि सभी पहलू मनुष्य के विचारों पर निर्भर करते हैं। किसी भी व्यक्ति के विचार जानकर उसके जीवन का नक्शा सहज ही मालूम किया जा सकता है। मनुष्य को कायर- वीर, स्वस्थ- अस्वस्थ, प्रसन्न- अप्रसन्न कुछ भी बनाने में उसके विचारों का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। तात्पर्य यह है कि अपने विचारों के अनुरूप ही मनुष्य का जीवन बनता- बिगड़ता है। अच्छे विचार उसे उन्नत बनायेंगे तो हीन विचार मनुष्य को गिराएँगे।
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है- ‘‘मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही उसका जीवन बनता है।’’ स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘‘स्वर्ग और नरक कहीं अन्यत्र नहीं, इनका निवास हमारे विचारों में ही है।’’ भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा था- ‘‘भिक्षुओ! वर्तमान में हम जो कुछ हैं अपने विचारों के ही कारण और भविष्य में जो कुछ भी बनेंगे वह भी अपने विचारों के कारण।’’ शेक्सपीयर ने लिखा है- ‘‘कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। अच्छाई- बुराई का आधार हमारे विचार ही हैं।’’ ईसामसीह ने कहा था- ‘‘मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही वह बन जाता है।’’ प्रसिद्ध रोमन दार्शनिक मार्क्स आरीलियस ने कहा है- ‘‘हमारा जीवन जो कुछ भी है, हमारे अपने ही विचारों के फलस्वरूप है।’’ प्रसिद्ध अमरीकी लेखक डेल कार्नेगी ने अपने अनुभवों पर आधारित तथ्य प्रकट करते हुए लिखा है- ‘‘जीवन में मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण कोई बात सीखी है तो वह है विचारों की अपूर्व शक्ति और महत्ता, विचारों की शक्ति सर्वोच्च तथा अपार है।’’
संसार के समस्त विचारकों ने एक स्वर से विचारों की शक्ति और उसके असाधारण महत्त्व को स्वीकार किया है। संक्षेप में जीवन की विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने में हमारे विचारों का ही प्रमुख हाथ रहता है। हम जो कुछ भी करते हैं विचारों की प्रेरणा से ही करते हैं।
संसार में दिखाई देने वाली विभिन्नताएँ, विचित्रताएँ भी हमारे विचारों का प्रतिबिम्ब ही है। संसार मनुष्य के विचारों की ही छाया है। किसी के लिए संसार स्वर्ग है तो किसी के लिए नरक। किसी के लिए संसार अशान्ति, क्लेश, पीड़ा आदि का आगार है तो किसी के लिए सुख- सुविधा सम्पन्न उपवन। एक- सी परिस्थितियों में, एक- सी सुख- सुविधा समृद्धि से युक्त दो व्यक्तियों में भी अपने विचारों की भिन्नता के कारण असाधारण अन्तर पड़ जाता है। एक जीवन में प्रतिक्षण सुख- सुविधा, प्रसन्नता, खुशी, शान्ति, सन्तोष का अनुभव करता है तो दूसरा पीड़ा, क्रोध, क्लेशमय जीवन बिताता है। इतना ही नहीं कई व्यक्ति कठिनाई का अभावग्रस्त जीवन बिताते हुए भी प्रसन्न रहते हैं तो कई समृद्ध होकर भी जीवन को नारकीय यंत्रणा समझते हैं। एक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहकर जीवन के लिए भगवान् को धन्यवाद देता है तो दूसरा अनेक सुख- सुविधाएँ पाकर भी असन्तुष्ट रहता है। दूसरों को कोसता है, महज अपने विचारों के ही कारण।
प्राचीन ऋषि- मुनि आरण्यक जीवन बिताकर, कन्द- मूल खाकर भी सन्तुष्ट और सुखी जीवन बिताते थे और धरती पर स्वर्गीय अनुभूति में मग्न रहते थे। एक ओर आज का मानव है जो पर्याप्त सुख- सुविधा, समृद्धि, ऐश्वर्य, वैज्ञानिक साधनों से युक्त जीवन बिताकर भी अधिक क्लेश, अशान्ति, दुःख, उद्विग्नता से परेशान है। यह मनुष्य के विचार चिन्तन का ही परिणाम है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक स्वर्ट अपने प्रत्येक जन्मदिन में काले और भद्दे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे। वह कहते थे- ‘‘अच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनियाँ में न आता।’’ इसके ठीक विपरीत अन्धे कवि मिल्टन कहा करते थे- ‘‘भगवान् का शुक्रिया है जिसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।’’ नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने अन्तिम दिनों में कहा था- ‘‘अफसोस है कि मैंने जीवन का एक सप्ताह भी सुख- शान्तिपूर्वक नहीं बिताया।’’ जबकि उसे समृद्धि, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, यश आदि की कोई कमी नहीं रही। सिकन्दर महान् भी अपने अन्तिम जीवन में पश्चाताप करता हुआ ही मरा। जीवन में सुख- शान्ति, प्रसन्नता अथवा दुःख, क्लेश, अशांति, पश्चाताप आदि का आधार मनुष्य के अपने विचार हैं, अन्य कोई नहीं। समृद्ध, ऐश्वर्य सम्पन्न जीवन में भी व्यक्ति गलत विचारों के कारण दुखी रहेगा और उत्कृष्ट विचारों से अभावग्रस्त जीवन में भी सुख- शान्ति, प्रसन्नता का अनुभव करेगा, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।

कुँए में मुँह करके आवाज देने पर वैसी ही प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है। संसार भी इस कुँए की आवाज की तरह ही है। मनुष्य जैसा सोचता है, विचारता है वैसी ही प्रतिक्रिया वातावरण में होती है।
ऋषियों के अहिंसा, सत्य, प्रेम, न्याय के विचारों से प्रभावित क्षेत्र में हिंसक पशु भी अपनी हिंसा छोड़कर अहिंसक पशुओं के साथ विचरण करते थे।

विकास और शोध का श्रेय विचार को
मनुष्य विचार शक्ति को जिस दिशा में प्रयुक्त करता है उधर ही आशाजनक सफलता उपलब्ध होने लगती है। चिन्तन की शोध द्वारा अनेकों प्रकार की रहस्यमय प्राकृतिक शक्तियों को जानने और उनको वशवर्ती बनाने में सफलता प्राप्त की गई है, इस शोध कार्य में सारा श्रेय मानव विचार शक्ति का ही है। ये प्राकृतिक शक्तियाँ तो अनादि काल से इस सृष्टि में मौजूद थीं पर उनको उपलब्ध कर सकना तभी सम्भव हुआ जब विचार- शक्ति की दौड़ उनके शोध तक पहुँची।
विचार- शक्ति के विशाल क्षेत्र के द्वारा ही वाणी, भाषा, लिपि, संगीत, अग्नि का उपयोग, कृषि, पशुपालन, जलतरण, वस्त्र निर्माण, धातु प्रयोग, मकान बनाने, संगठित रहने, सामूहिक सुविधा की धर्म- संहिता पर चलने, रोगों की चिकित्सा करने जैसे अनेकों महत्त्वपूर्ण आविष्कार मनुष्य ने जब- तब किए और उनके द्वारा अपनी स्थिति को देवोपम बनाया। मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यधिक विभूतिवान है। हम देवताओं के सुखों के बारे में सोचते हैं कि मनुष्य की अपेक्षा उन्हें असंख्य गुने सुध- साधन प्राप्त हैं। धरती के प्राणी भी यदि यह सोच सकें कि उनमें और मनुष्य की सुविधाओं में कितना अन्तर है तो हम उनसे कहीं अधिक सुख- सुविधा से सम्पन्न होंगे जितना कि हम अपनी तुलना में देवताओं को मानते हैं। यह देवोपम स्थिति हमने विचारशील की विशेषता के कारण उसके विकास और प्रयोग के कारण ही उपलब्ध की है।
पुष्ट विचार- शक्ति को जीवन की जिस दिशा में जितनी मात्रा में लगाना प्रारम्भ कर दिया है, हमें उस दिशा में उतनी ही सफलता मिलने लगती है। विज्ञान की शोध अस्त्र- शस्त्र की सुसज्जा, उत्पादन, राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा आदि जिन कार्यों में भी हमारा ध्यान लगा हुआ है उनमें तीव्र गति से प्रगति दृष्टिगोचर हो रही है और यदि ध्यान इन काल में केन्द्रीभूत हो इसी प्रकार लगा रहा हो तो भविष्य में उस ओर उन्नति भी आशाजनक होगी निश्चित है। पिछले दिनों में अपनी आकांक्षा को सुव्यवस्थित रूप में केन्द्रीभूत करके रूस और अमेरिका बहुत कुछ कर चुके हैं। हमारी आकांक्षा एवम् विचार- धारा अपने लक्ष्य पर जहाँ भी तन्मयता से संलग्न रहेगी वहाँ सफलता की उपलब्धि असंदिग्ध है। विचार शक्ति को एक जीवित जादू कहा जा सकता है। उसके स्पष्ट होने से निर्जीव मिट्टी नयनाभिराम खिलौने के रूप में और प्राणघातक विष जीवनदायी रसायन के रूप से बदल जाता है।
विचार शक्ति इस जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे कामधेनु और कल्पलता कह सकते हैं। प्रगति के पथ पर महान सम्बल के आधार पर ही मनुष्य आगे बढ़ सकता है। यह शक्ति यदि जीवन में उपस्थित उलझनों का स्वरूप समझने और उसका निराकरण करने में लगे तो निःसन्देह उसका भी हल निकल सकता हैं। विक्षोभ की परिस्थिति को बदलने का मार्ग रचनात्मक विचारों से ही मिलता है।
अतः सदैव विचारों को आशान्वित रखना चाहिए और उन्हें सदा रचनात्मक दिशा में लगाये रहना चाहिए। आज जो साधन और सुविधाएँ प्राप्त हैं उन्हीं के सहारे कल प्रगति के लिए क्या किया जा सकता है, इतना सोचना पर्याप्त है। बड़े साधन इकट्ठे होने पर बड़े कार्य करने की कल्पनाएँ निरर्थक हैं। जो कार्य आज हम नहीं कर सकते उनके लिए माथापच्ची क्यों की जाय? उद्देश्य ऊँचे रखने चाहिए, लक्ष्य बड़े से बड़ा रखा जा सकता है पर यह न भूला दिया कि आज हम कहाँ हैं? आज की परिस्थिति को समझना और उसी आधार पर आगे बढ़ने की बात सोचना ही व्यावहारिक बुद्धिमत्ता है। भविष्य के सम्बन्ध में आशा करते ही रहना चाहिये। जो आपत्तियों और असफलता की बात ही सोचेगा उसे कभी सुअवसर प्राप्त नहीं हो सकते। प्रगतिशील जीवन बना सकना उन्हीं के लिए सम्भव होता है जो प्रगतिशील ढंग से सोचते हैं और अपनी मानसिक शक्ति को रचनात्मक दिशा में संलग्न किये रहते हैं।

अद्भुत उपलब्धियों का आधार
किसी भी कार्य के प्रेरक होने से कार्य की सफलता- असफलता अच्छाई- बुराई और उच्चता- निम्नता के हेतु भी मनुष्य के अपने विचार ही है। जिस प्रकार के विचार होंगे सृजन भी उसी प्रकार का होगा।
नित्यप्रति देखने में आता है कि एक ही प्रकार का काम दो आदमी करते हैं। उनमें से एक का कार्य सुन्दर सफल और सुघड़ होता है और दूसरे का नहीं। एक से हाथ- पैर, उपादान और साधनों के होते हुए भी दो मनुष्यों के एक ही कार्य में विषमता क्यों होती है? इसका एकमात्र कारण उनकी अपनी- अपनी विचार प्रेरणा है। जिसके कार्य सम्बन्धी विचार जितने सुन्दर, सुघड़ और सुलझे हुए होंगे उसका कार्य भी उसी के अनुसार उद्दात्त होगा है।
जितने भी शिल्पों, शास्त्रों तथा साहित्य का सृजन हुआ है वह सब विचारों की ही विभूति है। चित्रकार नित्य नये- नये चित्र बनाता है, कवि नित्य नये काव्य रचता है, शिल्पकार नित्य नये मॉडल और नमूने तैयार करता है। यह सब विचारों का ही परिणाम है। कोई भी रचनाकार जो नया निर्माण कर करता है, वह कहीं से उतार कर नहीं लाता और न कोई अदृश्य देव ही उसकी सहायता करता है। वह यह सब नवीन रचनाएँ अपने विचारों के ही बल पर करता है। विचार ही वह अद्भुत शक्ति है जो मनुष्य को नित्य नवीन प्रेरणा दिया करती है। भूत, भविष्य और वर्तमान में जो कुछ दिखलाई दिया, दिखलाई देगा और दिखलाई दे रहा है वह सब विचारों में वर्तमान रहा है, वर्तमान रहेगा और वर्तमान है। तात्पर्य यह कि समग्र त्रयकालिक कर्तृत्व मनुष्य के विचार पटल पर अंकित रहता है। विचारों के प्रतिबिम्ब को ही मनुष्य बाहर के संसार में उतारा करता है। जिसकी विचार स्फुरणा जितनी शक्तिमती होगी उसकी रचना भी उतनी ही सबल एवं सफल होगी। स्थिर- शक्ति जितनी उज्ज्वल होगी, बाह्य प्रतिबिम्ब भी उतने ही स्पष्ट और सुबोध होंगे।
मनुष्य की विचार पेटी में संसार के सारे श्रेय एवं प्रेय सन्निहित रहते हैं। यही कारण है कि मनुष्य ने न केवल एक अपितु असंख्यों क्षेत्रों में चमत्कार कर दिखाये हैं। जिन विचारों के बल पर मनुष्य साहित्य का सृजन करता है उन्हीं विचारों के बल पर कल- कारखाने चलाता है। जिन विचारों के बल पर आत्मा और परमात्मा की खोज कर लेता है उन्हीं विचारों के बल पर खेती करता और विविध प्रकार के धन- धान्य उत्पन्न करता है, व्यापार और व्यवसाय करता है। यही नहीं
एक दिन पशुओं की भाँति सारी क्रियाओं में पूर्ण पशु मनुष्य आज इस सभ्यता के उन्नति शिखर पर किस प्रकार पहुँच गया? अपनी विचार- शक्ति की सहायता से। विचार शक्ति की अद्भुत उपलब्धि इस सृष्टि में केवल मानव प्राणी को ही प्राप्त हुई है। यही कारण है कि किसी दिन का पशुओं के समकक्ष मनुष्य आज महान उन्नत दशा में पहुँच गया है और अन्य सारे पशु- पक्षी आज भी अपनी आदि स्थिति में उसी प्रकार रह रहे हैं। पशु- पक्षी, नीड़ों और निविड़ों में पूर्ववत् ही निवास कर रहे हैं किन्तु मनुष्य बड़े- बड़े नगर बनाकर अनन्त सुविधाओं के साथ रह रहा है। यह सब विचार- कला का ही विस्मय है।
विचारों के बल पर मनुष्य न केवल पशु से मनुष्य बना है वह मनुष्य से देवता भी बन सकता है और विचार प्रधान ऋषि, मुनि, महात्मा और सन्त मनुष्य से देवकोटि में पहुँचे हैं, पहुँचते रहेंगे।
मनुष्य आज जिस उन्नत अवस्था में पहुँचा है वह एक साथ एक दिन की घटना नहीं है। वह धीरे- धीरे क्रमानुसार विचारों के परिष्कार के साथ आज इस स्थिति में पहुँच सका है। ज्यों- ज्यों उसके विचार परिष्कृत, पवित्र तथा उन्नत होते गये उसी प्रकार अपने साधनों के साथ उसका जीवन परिष्कृत तथा पुरस्कृत होता गया। व्यक्ति- व्यक्ति के रूप में भी हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य जितना सभ्य, सुशील और सुसंस्कृत है अपेक्षाकृत दूसरा उतना नहीं। समाज में जहाँ आज भी सन्तों और सज्जनों की कमी नहीं है वहाँ चोर, उचक्के भी पाये जाते हैं। जहाँ बड़े- बड़े शिल्पकार और साहित्यकार मौजूद हैं वहाँ गोबर गणेशों की भी कमी नहीं है। मनुष्यों की यह वैयक्तिक विषमता भी विचारों, संस्कारों के अनुपात पर ही निर्भर करती है। जिसके विचार जिस अनुपात से परिमार्जित हो रहे हैं वह उसी अनुपात से पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनता जा रहा है।
अरबों का उत्पादन करने वाले दैत्याकार कारखानों का संचालन, उद्वेलित जन- समुदाय का नियन्त्रण, दुर्धर्ष सेनाओं का अनुशासन और बड़े- बड़े साम्राज्यों का शासन और असंख्यों जनता का नेतृत्व एक विचार बल पर ही किया जाता है, अन्यथा एक मनुष्य में एक मनुष्य के योग्य ही सीमित शक्ति रही है, वह असंख्यों का अनुशासन किस प्रकार कर सकता है? बड़े- बड़े आततायी हुकुमरानों और सुदृढ़ साम्राज्यों को विचार बल से ही सलट दिया गया। बड़े- बड़े हिंस्र पशुओं और अत्याचारियों को विचार बल से प्रभावित कर सुशील बना लिया जाता है।

दिव्य विचारों से उत्कृष्ट जीवन
संसार में अधिकांश व्यक्ति बिना किसी उद्देश्य का अविचारपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं किन्तु जो अपने जीवन को उत्तम विचारों के अनुरूप ढालते हैं उन्हें जीवन- ध्येय की सिद्धि होती है। मनुष्य का जीवन उसके भले- बुरे विचारों के अनुरूप बनता है। कर्म का प्रारम्भिक स्वरूप विचार है। अतएव चरित्र और आचरण का निर्माण विचार ही करते है, यही मानना पड़ता है। जिसके विचार श्रेष्ठ होंगे उसके आचरण भी पवित्र होंगे। जीवन की यह पवित्रता ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है, ऊँचा उठाती है। अविवेकपूर्ण जीवन जीने में कोई विशेषता नहीं होती। सामान्य स्तर का जीवन तो पशु भी जी लेते हैं किन्तु उस जीवन का महत्त्व ही क्या जो अपना लक्ष्य न प्राप्त कर सके।
भले और बुरे- दोनों प्रकार के विचार मनुष्य के अन्तःकरण में भरे होते हैं। अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार वह जिन्हें चाहता है उन्हें जगा लेता है, जिनसे किसी प्रकार का सरोकार नहीं होता वे सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब मनुष्य कुविचारों का आश्रय लेता है तो उसका कलुषित अन्तःकरण विकसित होता है और दीनता, निकृष्टता, आधि- व्याधि, दरिद्रता, दैन्यता के अज्ञानमूलक परिणाम सिनेमा के पर्दे की भाँति सामने नाचने लगते हैं। पर जब वह शुभ्र विचारों में रमण करता है तो दिव्य- जीवन और श्रेष्ठता का अवतरण होने लगता है, सुख, समृद्धि और सफलता के मंगलमय परिणाम उपस्थित होने लगते हैं। मनुष्य का जीवन और कुछ नहीं विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र है। अतः विचारों पर नियन्त्रण रखने और उन्हें लक्ष्य की ओर नियोजित करने का अर्थ है जीवन को इच्छित दिशा में चला सकने की सामर्थ्य अर्जित करना। जबकि अनियमित, अनियोजित विचार का अर्थ है, दिशा- विहीन, अनियन्त्रित जीवन प्रवाह।
समस्त शुभ और अशुभ, सुख और दुःख की परिस्थितियों के हेतु तथा उत्थान पतन के मुख्य कारण- विचारों को वश में रखना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है। विचारों को उन्नत कीजिये, उनको मंगल मूलक बनाइये, उनका परिष्कार एवं परिमार्जन कीजिये और वे आपको स्वर्ग की सुखद परिस्थितियों में पहुँचा देंगे। इसके विपरीत यदि आपने विचारों को स्वतन्त्र छोड़ दिया उन्हें कलुषित एवं कलंकित होने दिया तो आपको हर समय नरक की ज्वाला में जलने के लिये तैयार रहना चाहिये। विचारों की चपेट से आपको संसार की कोई शक्ति नहीं बचा सकती।

विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभाव
भावनाओं और विचारों का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। बहुत समय तक प्रकृति के इस स्वाभाविक नियम पर न तो विश्वास किया गया न उपयोग। लोगों को इस विषय में जरा भी चिन्ता नहीं थी कि मानसिक स्थितियों का प्रभाव बाह्य स्थिति पर पड़ सकता है और आन्तरिक जीवन का कोई सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य जीवन से भी हो सकता है। दोनों को एक दूसरे से प्रथक मानकर गतिविधि चलती रही। आज जो शरीर शास्त्री अथवा चिकित्सक यह मानने लगे हैं की विचारों का शारीरिक स्थिति से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, वे पहले बहुत समय तक औषधियों जैसी जड़ वस्तुओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है- इसके प्रयोग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे।
इससे वे चिकित्सा के क्षेत्र में आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाने के विषय में काफी पिछड़ गये। चिकित्सक अब धीरे- धीरे इस बात का महत्त्व समझने और चिकित्सा में मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। मानस चिकित्सा का एक शास्त्र ही अलग बनता और विकास करता चला जा रहा है। अनुभवी लोगों का विश्वास है कि यदि यह मानस चिकित्सा शास्त्र पूरी तरह विकसित और पूर्ण हो गया तो कितने ही रोगों में औषधियों के प्रयोग की आवश्यकता कम हो जायेगी। लोग अब यह मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के जीवन में के अधिकाँश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदला जाय तो रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए है।
शरीर रचना के सम्बन्ध में जाँच करने वाले एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला में तरह- तरह के परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य का शरीर अर्थात् हड्डियाँ, माँस, स्नायु आदि मनुष्य की मनोदशा के अनुसार एक वर्ष में बिल्कुल परिवर्तित हो जाते हैं और कोई- कोई भाग तो एक- दो सप्ताह में ही बदल जाते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि चिकित्सा के क्षेत्र में मानसोपचार का बहुत महत्त्व है। सच बात तो यह है कि आरोग्य प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है। औषधियों तथा तरह- तरह की जड़ी- बूटियों का उपयोग कोई स्थाई लाभ नहीं करता, उनसे तो रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं, रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता। जीवनी शक्ति जो आरोग्य का यथार्थ आधार है, मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती- घटती रहती है। यदि रोगी के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय कि वह अधिक से अधिक प्रसन्न तथा उल्लसित रहने लगे तो उसकी जीवनी- शक्ति बढ़ जायेगी, जो अपने प्रभाव से रोग को निर्मूल कर सकती है।
बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख- भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता तब भी रोगी अपने को दिन भर भला- चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिए अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन तत्त्व को प्रोत्साहित करता है और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।
यही कारण है कि शिशु- पालन के नियमों में माता को परामर्श दिया गया है कि बच्चे को एकान्त में तथा निश्चिन्त एवं पूर्ण प्रसन्न मनोदशा में स्तन- पान कराये। क्षोभ अथवा आवेग की दशा में दूध पिलाना बच्चे के स्वास्थ्य तथा संस्कारों के लिए हानिप्रद होता है। जिन माताओं के दूध पीते बच्चे, रोगी, रोने वाले, चिड़चिड़े अथवा क्षीणकाय होते हैं, उसका मुख्य कारण यही रहता है कि वे माताएँ स्तनपान के वांछित नियमों का पालन नहीं करतीं अन्यथा वह आयु तो बच्चों के स्वस्थ- तन्दुरुस्त होने की होती है।
इस नियम की वास्तविकता का प्रमाण कोई भी अपने अनुभव के आधार पर पा सकता है। वह दिन याद करें कि जिस दिन कोई दुर्घटना देखी हो। चाहे उस दुर्घटना का सम्बन्ध अपने से न रहा हो तब भी उसे देखकर मानसिक स्थिति पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण शरीर सन्न रह गया, चलने की शक्ति कम हो गई, खड़ा रहना मुश्किल पड़ गया, शरीर में सिहरन अथवा कम्पन पैदा हो गई, आँसू आ गये अथवा मुख सूख गया। उसके बाद भी जब- जब उस भयंकर घटना का विचार मस्तिष्क में आता रहा शरीर पर बहुत बार उसका प्रभाव होता रहा।
मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सा शास्त्रियों का कहना है कि आज रोगियों की बड़ी संख्या में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो वास्तव में किसी रोग से पीड़ित हों। अन्य या बहुतायत ऐसे ही रोगियों की होती है, जो किसी न किसी काल्पनिक रोग के शिकार होते हैं। आरोग्य का विचारों से बहुत बड़ा सम्बन्ध होता है। जो व्यक्ति अपने प्रति रोगी होने, निर्बल और असमर्थ होने का भाव रखते हैं और सोचते रहते हैं कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। उन्हें आँख, नाक, कान, पेट, पीठ का कोई न कोई रोग लगा ही रहता है। बहुत कुछ उपाय करने पर भी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं रह पाते। ऐसे अशिव विचारों को धारण करने वाले वास्तव में कभी भी स्वस्थ नहीं रह पाते। यदि उनको कोई रोग नहीं भी होता है तो भी उनकी इस अशिव विचार साधना के फलस्वरूप कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और वे वास्तव में रोगी बन जाते।
इसके विपरीत जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सद्विचारों की साधना करते हैं, वे रोगी होने पर भी शीघ्र चंगे हो जाया करते हैं। रोगी इस प्रकार सोचने के अभ्यस्त होते हैं। वे उपचार के अभाव में भी स्वास्थ्य लाभ कर लेते हैं। मेरा रोग साधारण है, मेरा उपचार ठीक- ठीक पर्याप्त ढंग से हो रहा है, दिन- दिन मेरा रोग घटता जाता है और मैं अपने अन्दर एक स्फूर्ति, चेतना और आरोग्य की तरंग अनुभव करता हूँ। मेरे पूरी तरह स्वस्थ हो जाने में अब ज्यादा देर नहीं है। इसी प्रकार जो निरोग व्यक्ति भूलकर भी रोगों की शंका नहीं करता और अपने स्वास्थ्य से प्रसन्न रहता है। जो कुछ खाने को मिलता है, खाता और ईश्वर को धन्यवाद देता है, वह न केवल आजीवन निरोग ही रहता है, बल्कि दिन- दिन उसकी शक्ति और सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है।

विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं
डॉ. एफ. ई. विल्स, डॉ. लेलाड काडल राबर्ट मैक कैरिसन आदि अनेक स्वास्थ्य शास्त्रियों ने दीर्घायु के रहस्य ढूँढ़े। प्राकृतिक जीवन, सन्तुलित और शाकाहार, परिश्रमशील जीवन, संयमित जीवन शतायुष्य के लिए यही सब नियम माने गये हैं, लेकिन कई बार ऐसे व्यक्ति देखने में आये जो इन नियमों की अवहेलना करके, रोगी और बीमार रहकर भी सौ वर्ष की आयु से अधिक जिये। इससे इन वैज्ञानिकों को भी भ्रम बना रहा कि दीर्घायुष्य का रहस्य कहीं और छिपा हुआ है। इसके लिए उसकी खोज निरंतर जारी रहीं।
अमेरिका के दो वैज्ञानिक डॉ. ग्रानिक और डॉ. बिरेन बहुत दिनों तक खोज करने के बाद इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचे कि दीर्घ जीवन का सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क एवं ज्ञान से है। उनका कहना है कि अनुसंधान के समय 92 और इस आयु के ऊपर के जितने भी लोग मिले वह सब अधिकतर पढ़ने वाले थे। आयु बढ़ने के साथ- साथ जिनकी ज्ञान वृद्धि भी होती है वे दीर्घजीवी होते हैं पर पचास की आयु पार करने के बाद जो पढ़ना बन्द कर देते हैंजिनका ज्ञान नष्ट होने लगता है, जल्दी ही मृत्यु के ग्रास हो जाते हैं।
दोनों स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि मस्तिष्क जितना पढ़ता है उतना ही उसमें चिन्तन करने की शक्ति आती है। व्यक्ति जितना सोचता, विचारता रहता है, उसका नाड़ी मण्डल उतना ही तीव्र रहता है। हम यह सोचते हैं कि देखने का काम हमारी आँखें करती हैं, सुनने का काम कान, साँस लेने का काम फेफड़े, पेट भोजन पचाने और हृदय रक्त परिभ्रमण का काम करता है। विभिन्न अंग अपना- अपना काम करके शरीर की गतिविधि चलाते हैं। पर यह हमारी भूल है। सही बात यह है कि नाड़ी मण्डल की सक्रियता से ही शरीर के सब अवयव क्रियाशील होते हैं, इसलिए मस्तिष्क जितना क्रियाशील होगा शरीर उतना ही क्रियाशील होगा। मस्तिष्क के मंद पड़ने का अर्थ है शरीर के अंग- प्रत्यंगों की शिथिलता और तब मनुष्य की मृत्यु शीघ्र ही हो जावेगी। इससे जीवित रहने के लिए पढ़ना बहुत आवश्यक है। ज्ञान की धारायें जितनी तीव्र होंगी उतनी ही आयु भी लम्बी होगी।
आर्क्सफोर्ड डिक्शनरी में हैल्थका शाब्दिक अर्थ शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से पुष्ट होनालिखा है। अर्थात् मस्तिष्क जितना पुष्ट रहता है, शरीर उतना ही पुष्ट होगा और मस्तिष्क के पुष्ट होने का एक ही उपाय है ज्ञान वृद्धि। शास्त्रकारों ने भी ज्ञान वृद्धि को ही अमरता का साधना कहा है। भारतीय ऋषि- मुनियों का दीर्घजीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सभी ऋषि दीर्घजीवी हुए हैं, उनके जीवनक्रम में ज्ञानार्जन ही सबसे बड़ी विशेषता रही है। इसके लिए तो उन्होंने वैभव विलास का जीवन तक ठुकरा दिया था। वे निरंतर अध्ययन में लगे रहते थे जिससे उनका नाड़ी संस्थान कभी शिथिल न होने पाता था और वे दो- दो, चार- चार सौ वर्ष तक हँसते- खेलते जीते रहते थे।
पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, विश्वामित्र, दुर्वासा, व्यास आदि की आयु कई- कई सौ वर्ष की थी। जामवन्त की कथा लगती कपोल कल्पित है पर अमेरिकी वैज्ञानिकों का कथन सत्य है तो उस कल्पना को भी निराधार नहीं कहा जा सकता है। कहते हैं जामवन्त बड़ा विद्वान् था। वेद उपनिषद् उसे कण्ठस्थ थे वह निरन्तर पढ़ा ही करता था और इस स्वाध्यायशीलता के कारण ही उसने लम्बा जीवन प्राप्त किया था। वामन अवतार के समय वह युवक था। रामचन्द्र का अवतार हुआ तब यद्यपि उसका शरीर काफी वृद्ध हो गया था पर उसने रावण के साथ युद्ध में भाग लिया था। उसी जामवन्त के कृष्णावतार में भी उपस्थित होने का वर्णन आता है।
दूर की क्यों कहें पेंटर मार्फेसने ही अपने भारत के इतिहास में ‘‘नूमिस्देको हुआ’’ नामक एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन किया है जो सन् 1566 ई० में 370 की आयु में मरा था। इस व्यक्ति के बारे में इतिहासकार ने लिखा है कि मृत्यु के समय भी उसे अतीत की घटनाएँ इतनी स्पष्ट याद थीं जैसे अभी वह कल की बातें हो। यह व्यक्ति प्रतिदिन 6 घण्टे से कम नहीं पढ़ता था। डॉ० लेलार्ड कार्डेल लिखते हैं— ‘‘मैंने शिकागो निवासिनी श्रीमती ल्यूसी जे० से भेंट की तब उनकी आयु 108 वर्ष की थी। मैं जब उनके पास गया तब वे पढ़ रही थीं। बात- चीत के दौरान पता चला कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत तेज है वे प्रतिदिन नियमित रूप से पढ़ती हैं।’’
जीवन में बालक से लेकर बूढ़े तक सभी प्रसन्नता चाहते हैं और उसे पाने का प्रयत्न करते रहते हैं क्योंकि एक स्थायी प्रसन्नता जीवन का चरम लक्ष्य भी है। यदि मनुष्य- जीवन में प्रसन्नता का नितान्त अभाव हो जाये तो उसका कुछ समय चल सकना भी असम्भव हो जाये।
यह बात सत्य है कि मानव- जीवन में अनुपात दुःख- क्लेश का ही अधिक देखने में आता है। तब भी लोग शौक से जी रहे हैं। इसका कारण यही है कि बीच- बीच में उन्हें प्रसन्नता भी प्राप्त होती रहती है, और उसके लिए उन्हें नित्य नई आशा बनी रहती है। प्रसन्नता जीवन के लिए संजीवनी तत्त्व है। मनुष्य को उसे प्राप्त करना ही चाहिये। प्रसन्नावस्था में ही मनुष्य अपना तथा समाज का भला कर सकता है, विषण्णावस्था में नहीं।
प्रसन्नता वांछनीय भी है और लोग उसे पाने के लिये निरन्तर प्रयत्न भी करते रहते हैं। किन्तु फिर भी कोई उसे अपेक्षित अर्थ में पाता दिखाई नहीं देता। क्या धनवान, क्या बालक और क्या वृद्ध किसी से भी पूछ देखिये क्या आप जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं? उत्तर अधिकतर नकारात्मक ही मिलेगा। उसका पूरक दूसरा प्रश्न भी कर देखियेतो क्या आप उसके लिये प्रयत्न नहीं करते? नब्बे प्रतिशत से अधिक उत्तर यही मिलेगा— ‘‘कि प्रयत्न तो अधिक करते हैं किन्तु प्रसन्नता मिल ही नहीं पाती।’’ निःसन्देह मनुष्य की यह असफलता आश्चर्य ही नहीं दुःख का विषय है।
कितने खेद का विषय है कि आदमी किसी एक विषय अथवा वस्तु के लिये प्रयत्न करे और उसको प्राप्त न कर सके। ऐसा भी नहीं कि कोई उसे प्राप्त करने में कम श्रम करता हो अथवा प्रयत्नों में कोताही रखता हो। मनुष्य सम्पूर्ण अणु- क्षण एकमात्र प्रसन्नता प्राप्त करने में ही तत्पर एवं व्यस्त रहता है। वह सोते- जागते, उठते- बैठते, चलते- फिरते जो कुछ भी अच्छा- बुरा करता है सब प्रसन्नता प्राप्त करने के मन्तव्य से। किन्तु खेद है कि वह उसे उचित रूप से प्राप्त नहीं कर पाता।

प्रसन्नता का वास्तविक स्वरूप
इस स्थिति को देखते हुए तो यही समझ आता है कि या तो मनुष्य प्रसन्नता के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता अथवा वह अपनी वाँछित वस्तु को पाने के लिए जिस दिशा में प्रयत्न करता है वह ही गलत है। इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
लोगों में अधिकतर एक सामान्य धारणा यह रहा करती है कि यदि उनके पास अधिक पैसा हो, साधन- सुविधाएँ हों तो वे प्रसन्न रह सकते हैं। ऐसी धारणाओं वाले लोग सदैव साधन सुविधाओं के लिए रोते- रिरियाते रहने के बजाय एक बाद दृष्टि उठाकर उन लोगों की ओर क्यों नहीं देखते कि प्रचुरता से परिपूर्ण होने पर भी क्या वे सुखी हैं, प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं? यदि धन- दौलत तथा साधन सुविधाएँ ही प्रसन्नता की हेतु होतीं तो संसार का हर धनवान अधिक से अधिक सुखी और सन्तुष्ट होता किन्तु ऐसा कहाँ है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि वैभव और विभूति वास्तविक प्रसन्नता का कारण नहीं है। प्रसन्नता प्राप्ति का हेतु मानकर इन भौतिक विभूतियों के लिए रोते- मरते रहना बुद्धिमानी नहीं हैं।
बल, बुद्धि और विद्या को भी प्रसन्नता का हेतु मानने की एक सभ्य प्रथा है। किन्तु यह ऐश्वर्य भी वास्तविक प्रसन्नता का वाहन नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर शिक्षित प्रसन्न दिखाई देता और हर अशिक्षित अप्रसन्न। ऐसा भी देखने में नहीं आता। जिस प्रकार अनेक धनवान अप्रसन्न और निर्धन प्रसन्न देखे जा सकते हैं उसी प्रकार अनेक विद्वान क्षुब्ध तथा कम पढ़े- लिखे लोग प्रसन्न मिल सकते हैं। बड़े- बड़े बलवान आहें भरते और साधारण सामर्थ्य वाले व्यक्ति हँसी- खुशी से जीवन बिताते मिल सकते हैं।
इस प्रकार विचार करने से पता चलता है कि वास्तविक प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसको किसी शक्ति अथवा साधन के बल पर प्राप्त किया जा सके। साधनों की झोली फैलाकर प्रसन्नता की तलाश में दौड़ने वाले कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते, और वास्तविक बात तो यह है कि जो जितना अधिक प्रसन्नता के पीछे दौड़ते हैं वे उतने ही अधिक निराश होते हैं। उनका यह निरर्थक श्रम उस अबोध हरिण की तरह ही शोचनीय होता है जो पानी के भ्रम में मरु मरीचिका के पीछे दौड़ते हैं अथवा बालक की तरह कौतुकपूर्ण है जो आगे पड़ी हुई अपनी छाया को पकड़ने के लिए दौड़ता है। प्रसन्नता कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका पीछा करने की जरूरत है। वह तो अवसर आने पर स्वयं ही आकर मनो- मन्दिर में हँसने लगती है। उसके आने का एक अवसर तो यही होता है जब हम उसको पाने के लिए कम से कम लालायित, व्यग्र और चिन्तित होते हैं।
प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में नियोजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न में जो कष्ट प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। छोटा- मोटा कष्ट तो दूर, देश भक्त तथा अनेकों परोपकारियों ने अपने प्राण देने पर भी अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त की है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्युवेदी पर प्राण- हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है।
एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। जिस दिन यह सोचने के बजाय कि आज हम अपने लिये अधिक से अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, यदि यह सोचकर दिन का काम प्रारम्भ किया जाए कि आज हम दूसरों के लिए अधिक प्रसन्नता संचय करेंगे, तो वह दिन आपके लिए बहुत अधिक प्रसन्नता का दिन होगा।
साधारण मनोरंजन, कार्यों तथा व्यवहारों में इस रहस्य को आये दिन देखा जा सकता है कि जो काम दूसरों को प्रसन्न करने वाले होते हैं अथवा जिन कामों से हम दूसरों को प्रसन्न कर पाते हैं वे ही काम हमें अधिक से अधिक प्रसन्न किया करते हैं। एक खिलाड़ी गेंद खेलता है और विपक्षी पर एक गोल कर देता है तो उसे अपनी सफलता पर प्रसन्नता होती है, किन्तु तभी जब उसके साथी भी प्रसन्न होते हैं। यदि किसी कारण से उसकी यह सफलता दर्शकों अथवा साथियों को प्रसन्न न कर पाये तो उसे स्वयं भी प्रसन्नता न होगी। एक शिल्पी भवन अथवा मंदिर बनाता है। यद्यपि वह उसका नहीं होता तथापि वह इसलिये प्रसन्न होता है कि उसका यह काम दूसरों को प्रसन्न कर सकता है। इसी प्रकार कोई चित्रकार, कलाकार अथवा कवि कोई रचना करता है तो उसे प्रसन्नता होती है, उसे अपनी कृति अच्छी लगती है। किन्तु उसकी प्रसन्नता में वास्तविकता तभी आती है जब दूसरे भी प्रसन्न होते हैं। संयोगवश यदि उसका सृजन अन्य किसी की प्रसन्नता का सम्पादन न कर सके तो अपनी होते हुए भी कला में कोई रुचि न रहेगी वह उसे बेकार समझेगा और उसकी प्रसन्नता जाती रहेगी।
वास्तविकता प्रसन्नता का मूल रहस्य दूसरों की प्रसन्नता में निहित हैं। जो परोपकारी व्यक्ति दूसरों के सुख के लिए जीते हैं उनके कार्य औरों की सेवा रूप होते हैं। वे अपने जीवन में साधन शून्य रहने पर भी प्रसन्न सन्तुष्ट एवं सुखी रहते हैं। जिसकी जीवन में वास्तविक प्रसन्नता की जिज्ञासा हो वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाये, नित्य निरंतर दूसरों का हित साधन करे जिससे कि वह अपनी वांछित वस्तु प्रसन्नता को नित्य निरन्तर पाता रहे।
विचार का चरित्र से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जिसके विचार जिस स्तर के होंगे, उसका चरित्र भी उसी कोटि का होगा। जिसके विचार क्रोध प्रधान होंगे वह चरित्र से भी लड़ाकू और झगड़ालू होगा। जिसके विचार कामुक और स्त्रैण होंगे, उसका चरित्र वासनाओं और विषय- भोग की जीती जागती तस्वीर ही मिलेगा। विचारों के अनुरूप ही चरित्र का निर्माण होता है, यह प्रकृति का अटल नियम है। चरित्र मनुष्य की सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। उससे ही सम्मान, प्रतिष्ठा, विश्वास और श्रद्धा की प्राप्ति होती है। वही मानसिक और शारीरिक शक्ति का मूल आधार है। चरित्र की उच्चता ही उच्च जीवन का मार्ग निर्धारित करती है और उस पर चल सकने की क्षमता दिया करती है।
निम्नाचरण के व्यक्ति समाज में नीची दृष्टि से ही देखे जाते हैं। उनकी गतिविधि अधिकतर समाज विरोधी ही रहती है। अनुशासन और मर्यादा जो कि वैयक्तिक से लेकर राष्ट्रीय जीवन की दृढ़ता की आधार- शिला है, निम्नाचरण व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है। आचरणहीन व्यक्ति और एक साधारण पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। जिसने अपनी यह बहुमूल्य सम्पत्ति खो दी उसने मानो सब कुछ खो दिया। सब कुछ पा लेने पर भी चरित्र का अभाव मनुष्य को आजीवन दरिद्री ही बनाये रखता है।
मनुष्यों से भरी इस दुनियाँ में अधिकांश संख्या ऐसों की ही है, जिन्हें एक तरह से अर्ध मनुष्य ही कहा जा सकता है। वे कुछ ही प्रवृत्तियों और कार्यों में पशुओं से भिन्न होते हैं, अन्यथा वे एक प्रकार से मानव- पशु ही होते हैं। इसके विपरीत कुछ मनुष्य बड़े ही सभ्य, शिष्ट और शालीन होते हैं। उनकी दुनियाँ सुन्दर और कलाप्रिय होती है। इसके आगे भी एक श्रेणी चली गई है, जिनको महापुरुष, ऋषि- मुनि और देवता कह सकते हैं। समान हाथ- पैर और मुँह, नाक, कान के होते हुए भी और एक ही वातावरण में रहते मनुष्यों में यह अन्तर क्यों दिखलाई देता है? इसका आधारभूत कारण विचार ही माने गये हैं। जिस मनुष्य के विचार जिस अनुपात में जितने अधिक विकसित होते चले जाते हैं, उसका स्तर पशुता से श्रेष्ठता की ओर उठता चला जाता है। असुरत्व, पशुत्व, ऋषित्व अथवा देवत्व और कुछ नहीं, विचारों के ही स्तरों के नाम हैं। यह विचार- शक्ति ही है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस बना सकती है।

विचार ही चरित्र निर्माण करते हैं
इसके विपरीत इस पर संस्कारों का पूर्ण आधिपत्य होता है। न चाहते हुए भी, शरीर- यंत्र संस्कारों की प्रेरणा से हठात् सक्रिय हो उठता है और तदनुसार आचरण प्रतिपादित करता है। मानव जीवन में संस्कारों का बहुत महत्त्व है। इन्हें यदि मानव- जीवन का अधिष्ठाता और आचरण का प्रेरक कह दिया जाय तब भी असंगत न होगा।
केवल विचार मात्र ही मानव चरित्र के प्रकाशक प्रतीत नहीं होते मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाए जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उसके अनुरूप नहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म- कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहीं माने जा सकते। सच्चा चरित्रवान वही माना जायेगा और वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है।
चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है— ‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शत- प्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। गया हुआ धन वापस आ जाता है, नित्य प्रति संसार में लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान् होते रहते हैं, धूप- छाँव जैसी धन अथवा अधन की इस स्थिति का जरा भी महत्त्व नहीं हैं। इसी प्रकार रोगों, व्यक्तियों और चिन्ताओं के प्रभाव से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता और तदनुकूल उपायों द्वारा बनता रहता है। नित्य प्रति अस्वास्थ्य के बाद लोगों को स्वस्थ होते देखे जा सकता है। किन्तु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुश्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान बन सकता है। तथापि वह अपना वह असंदिग्ध विश्वास नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका होता है।
समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हों, चरित्रवान् होने पर भी उसके चरित्र का कोई मूल्य, महत्त्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। यथार्थ में चरित्रवान् वही है, जो अपने समाज, अपनी आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और सन्देह रहित हो। इस प्रकार की मान्य और निःशंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है, जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनी चारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिये। यदि चरित्र चला गया तो मानो मानव- जीवन का सब कुछ चला गया।
धन और स्वास्थ्य भी मानव- जीवन की सम्पत्तियाँ हैंइसमें सन्देह नहीं। किन्तु चरित्र की तुलना में यह नगण्य हैं। चरित्र के आधार पर धन और स्वास्थ्य तो पाये जा सकते हैं किन्तु धन और स्वास्थ्य के आधार पर चरित्र नहीं पाया जा सकता। यदि चरित्र सुरक्षित है, समाज में विश्वास बना है तो मनुष्य अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर पुनः धन की प्राप्ति कर सकता है। चरित्र में यदि दृढ़ता है, सन्मार्ग का त्याग नहीं किया गया है तो उसके आधार पर संयम, नियम और आचार- विचार के द्वारा खोया हुआ स्वास्थ्य फिर वापस बुलाया जा सकता है। किन्तु यदि चारित्रिक विशेषता का ह्रास हो गया है तो इनमें से एक की भी क्षति पूर्ति नहीं की जा सकती। इसलिये चरित्र का महत्त्व धन और स्वास्थ्य दोनों से ऊपर है। इसीलिये विद्वान् विचारकों ने यह घोषणा की है, कि— ‘‘धन चला गया, तो कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, तो कुछ गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’
मनुष्य के चरित्र का निर्माण संस्कारों के आधार पर होता है। मनुष्य जिस प्रकार के संस्कार संचय करता रहता है, उसी प्रकार उसका चरित्र ढलता रहता है। अस्तु अपने चरित्र का निर्माण करने के लिये मनुष्य को अपने संस्कार का निर्माण करना चाहिये। संस्कार मनुष्य के उन विचारों के ही प्रौढ़ रूप होते हैं, जो दीर्घकाल तक रहने से मस्तिष्क में अपनी स्थायी स्थान बना लेता हैं। यदि सद्विचारों को अपनाकर उनका ही चिंतन और मनन किया जाता रहे तो मनुष्य के संस्कार शुभ और सुन्दर बनेंगे। इसके विपरीत यदि असद् विचारों को ग्रहण कर मस्तिष्क में बसाया और मनन किया जायेगा तो संस्कार के रूप में कूड़ा- कर्कट ही इकट्ठा होता जायेगा।
इसी नियम के अनुसार बहुधा देखा जाता है कि अनेक लोग, लोक प्रियता के कारण भोगवासनाओं को निरन्तर चिन्तन से संस्कारों में सम्मिलित कर लेते हैं, बहुत कुछ पूजा- पाठ, सत्संग और धार्मिक साहित्य का अध्ययन करते रहने पर भी उनसे मुक्त नहीं हो पाते। वे चाहते हैं कि संसार के नश्वर भोगों और अकल्याणकर वासनाओं से विरक्ति हो जाये, लेकिन उनकी यह चाह पूरी नहीं हो पाती।
धर्म- कर्म और विरक्ति भाव में रुचि होने पर भी भोग वासनाएँ उनका साथ नहीं छोड़ पातीं। विचार जब तक संस्कार नहीं बन जाते मानव- वृत्तियों में परिवर्तन नहीं ला सकते। संस्कार रूप भोग वासनाओं से छूट सकना तभी सम्भव होता है जब अखण्ड प्रयत्न द्वारा पूर्व संस्कारों को धूमिल बनाया जाये और वांछनीय विचारों को भावनात्मक अनुभूति के साथ, चिन्तन- मनन और विश्वास के द्वारा संस्कार रूप में प्रौढ़ और परिपुष्ट किया जाय। पुराने कुसंस्कारों से छूटना परमावश्यक है।
चरित्र मानव- जीवन की सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। यही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख- शान्ति और मान- सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख- दारिद्र्य तथा अशांति, असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। जिसने अपने चरित्र का निर्माण आदर्श रूप में कर लिया उसने मानो लौकिक सफलताओं के साथ पारलौकिक सुख- शान्ति की सम्भावनाएँ स्थिर कर लीं और जिसने अन्य नश्वर सम्पदाओं के माया- मोह में पड़कर अपनी चारित्रिक सम्पदा की उपेक्षा कर दी उसने मानो लोक से लेकर परलोक तक के जीवनपथ में अपने लिये नारकीय पड़ाव का प्रबन्ध कर लिया। यदि सुख की इच्छा है तो चरित्र का निर्माण करिए। धन की कामना है तो आचरण ऊँचा करिए, स्वर्ग की वांछा है तो भी चरित्र को देवोपम बनाइए और यदि आत्मा, परमात्मा अथवा मोक्ष मुक्ति की जिज्ञासा है तो भी चरित्र को आदर्श एवं उदात्त बनाना होगा। जहाँ चरित्र है वहाँ सब कुछ है, जहाँ चरित्र नहीं वहाँ कुछ भी नहीं भले ही देखने- सुनने के लिए भण्डार के भण्डार क्यों न भरे पड़े हों।
चरित्र की रचना संस्कारों के अनुसार होती है और संस्कारों की रचना विचारों के अनुसार। अस्तु आदर्श चरित्र के लिये, आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होगा। पवित्र कल्याणकारी और उत्पादक विचारों को चुन- चुनकर अपने मस्तिष्क में स्थान दीजिए। अकल्याणकर दूषित विचारों को एक क्षण के लिये भी पास मत आने दीजिए। अच्छे विचारों का ही चिन्तन और मनन करिए। अच्छे विचार वालों से संसर्ग करिए, अच्छे विचारों का साहित्य पढ़िए और इस प्रकार हर ओर से अच्छे विचारों से ओत- प्रोत हो जाइए। कुछ ही समय में आपके उन शुभ विचारों से आपकी एकात्मक अनुभूति जुड़ जाएगी, उनके चिन्तन- मनन में निरन्तरता आ जायेगी, जिसके फलस्वरूप मांगलिक विचार चेतन मस्तिष्क से अवचेतन मस्तिष्क में संस्कार बन- बनकर संचित होने लगेंगे और तब उन्हीं के अनुसार आपका चरित्र निर्मित और आपकी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से आपसे आप संचालित होने लगेंगी। आप एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति बनकर सारे श्रेयों के अधिकारी बन जायेंगे।

श्रेष्ठ व्यक्ति के आधार सद्विचार
अविचारी व्यक्ति कितने ही सुन्दर आवरण अथवा आडम्बर में छिपकर क्यों न रहे, उसकी अविचारिता उसके व्यक्तित्व में स्पष्ट झलकती रहेगी।
नित्य प्रति के सामान्य जीवन का अनुभव इस बात का साक्षी है कि बहुत बार हम ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क में आ जाते हैं जो सुन्दर वेश- भूषा के साथ- साथ सूरत- शकल से भी बुरे और भद्दे नहीं होते, तब भी उनको देखकर हृदय पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं होती। यदि हम यह जानते हैं कि हम बुरे आदमी नहीं हैं और इस प्रतिक्रिया के पीछे हमारी विरोध भावना अथवा पक्षपाती दृष्टिकोण सक्रिय नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि वे अच्छे विचार वाले नहीं हैं। उनका हृदय उस प्रकार स्वच्छ नहीं है जिस प्रकार बाह्य- वेश। इसके विपरीत कभी- कभी ऐसा व्यक्ति सम्पर्क में आता जाता है जिसका बाह्य- वेश न तो सुन्दर होता है और न उसका व्यक्तित्व ही आकर्षक होता है तब भी हमारा हृदय उससे मिलकर प्रसन्न हो उठता है, उससे आत्मीयता का अनुभव होता है। इसका अर्थ यही है कि वह आकर्षण बाह्य का नहीं अन्तर का है, जिसमें सद्भावनाओं तथा सद्विचारों के फूल खिले हुए हैं।
इस विचार प्रभाव को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब एक सामान्य पथिक किसी ऐसे मार्ग से गुजरता है जहाँ पर अनेक मृगछौने खेल रहे हों, सुन्दर पक्षी कल्लोल कर रहे हों तो वे जीव उसे देखकर सतर्क भले हो जाएँ और उस अजनबी को विस्मय से देखने लगें किन्तु भयभीत कदापि नहीं होते। किन्तु यदि उसके स्थान पर जब कोई शिकारी अथवा गीदड़ आता है तो वे जीव भय से त्रस्त होकर भागने और चिल्लाने लगते हैं। वे दोनों ऊपर से देखने में एक जैसे मनुष्य ही होते हैं किन्तु विचार के अनुसार उनके व्यक्तित्व का प्रभाव भिन्न- भिन्न होता है।
कितनी ही सज्जनोचित वेशभूषा में क्यों न हो, दुष्ट- दुराचारी को देखते ही पहचान लिया जाता है, साधु तथा सिद्धों के वेश में छिपकर रहने वाले अपराधी, अनुभवी पुलिस की दृष्टि से नहीं बच पाते और बात की बात में पकड़े जाते हैं। उनके हृदय का दुर्भाव उनका सारा आवरण भेद कर व्यक्तित्व के ऊपर बोलता रहता है।
जिस प्रकार के मनुष्य के विचार होते हैं वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि भृंगी पतंग, झींगुर को पकड़ लेता है और बहुत देर तक उसके सामने रहकर गुँजार करता रहता है। यहाँ तक कि उसे देखते- देखते बेहोश हो जाता है। उस बेहोशी की दशा में झींगुर की विचार परिधि निरन्तर उस भृंगी के स्वरूप तथा उसकी गुँजार से घिरी रहती है जिसके फलस्वरूप वह झींगुर भी कालान्तर में भृंगी जैसा ही बन जाता है। इसी भृंगी तथा कीट के आधार पर आदि कवि वाल्मीकि ने सीता और राम के प्रेम को वर्णन करते हुए एक बड़ी सुन्दर उक्ति अपने महाकाव्य में प्रस्तुत की है।
उन्होंने लिखा कि सीता ने अशोक- वाटिका की सहचरी विभीषण की पत्नी सरमा से एक बार कहासरमे! मैं अपने प्रभु राम का निरन्तर ध्यान करती रहती हूँ। उनका स्वरूप प्रतिक्षण मेरी विचार परिधि में समाया रहता है। कहीं ऐसा न हो कि भृंगी और पतंग के समान इस विचार तन्मयता के कारण मैं राम- रूप ही हो जाऊँ और तब हमारे दाम्पत्य- जीवन में बड़ा व्यवधान पड़ जायेगा। सीता की चिन्ता सुनकर सरमा ने हँसते हुए कहादेवी! आप चिन्ता क्यों करती हैं, आपके दाम्पत्य- जीवन में जरा भी व्यवधान नहीं पड़ेगा। जिस प्रकार आप भगवान के स्वरूप का विचार करती रहती हैं, उसी प्रकार राम भी तो आपके रूप का चिन्तन करते रहते हैं। इस प्रकार यदि आप राम बन जायेंगी तो राम सीता बन जायेंगे। इससे दाम्पत्य- जीवन में क्या व्यवधान पड़ सकता है? परिवर्तन केवल इतना होगा कि पति- पत्नी और पत्नी- पति बन जायेगी। इस उदाहरण में कितना सत्य है नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह तथ्य मनोवैज्ञानिक आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जिन विचारों का चिन्तन करता है, उनके अनुरूप ही बन जाता है। इसी सन्दर्भ में एक गुरु ने अपने एक अविश्वासी शिष्य की शंका दूर करने के लिए उसे प्रायोगिक प्रमाण दियाउन्होंने उस शिष्य को बड़े- बड़े सींगों वाला एक भैंसा दिखाकर कहा कि इसका यह स्वरूप अपने मन पर अंकित करके और इस कुटी में बैठकर निरन्तर उसका ध्यान तब तक करता रहे जब तक वे उसे पुकारें नहीं। निदान शिष्य कुटी में बैठा हुआ, बहुत समय तक उस भैंसे का और विशेष प्रकार के उसके बड़े- बड़े सींगों का स्मरण करता रहा। कुछ समय बाद गुरु ने उसे बाहर निकलने के लिए आवाज दी। शिष्य ने ज्यों ही खड़े होकर दरवाजे में सिर डाला कि वह अटक कर रुक गया। ध्यान करते- करते उसके सिर पर उसी भैंसे की तरह बड़े- बड़े सींग निकल आये थे। उसने गुरु को अपनी विपत्ति बतलाई और कृपा करने की प्रार्थना की। तब गुरु ने उसे फिर आदेश दिया कि वह कुछ समय उसी प्रकार अपने स्वाभाविक स्वरूप का चिंतन करे। निदान उसने ऐसा किया और कुछ समय में उसके सींग गायब हो गये।
आख्यान भले ही सत्य न हो किन्तु उसका निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जिस बात का चिंतन करता रहता है, जिन विचारों में प्रधानतया तन्मय रहता है वह उसी प्रकार का बन जाता है।
मनुष्य के आन्तरिक विचारों के अनुरूप ही बाह्य परिस्थितियों का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए किसी व्यापारी को ले लीजिये। यदि वह निर्बल विचारों वाला है और भय तथा आशंका के साथ खरीद- फरोख्त करता है, हर समय यही सोचता रहता है कि कहीं घाटा न हो जाय, कहीं माल का भाव न गिर जाय, कोई रद्दी माल आकर न फँस जाय, तो मानो उसे अपने काम में घाटा होगा अथवा उसका दृष्टिकोण इतना दूषित हो जायेगा कि उसे अच्छे माल में भी त्रुटि दीखने लगेगी, ईमानदार आदमी बेईमान लगने लगेंगे और उसी के अनुसार उसका आचरण बन जायेगा जिससे बाजार में उसकी बात उठ जायेगी। लोग उससे सहयोग करना छोड़ देंगे और वह निश्चित रूप से असफल होगा और घाटे का शिकार बनेंगे। अशुभ विचारों से शुभ परिणामों की आशा नहीं की जा सकती।
कोई मनुष्य कितना ही अच्छा तथा भला क्यों न हो यदि हमारे विचार उसके प्रति दूषित हैं, विरोधी अथवा शत्रुतापूर्ण हैं तो वह जल्दी ही हमारा विरोधी बन जायेगा। विचारों की प्रतिक्रिया विचारों पर होना स्वाभाविक है। इसको किसी प्रकार भी वर्जित नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं यदि हमारे विचार स्वयं अपने प्रति ओछे तथा हीन हो जायें, हम अपने को अभागा एवं अक्षम चिन्तन करने लगें तो कुछ ही समय में हमारे सारे गुण नष्ट हो जायेंगे और हम वास्तव में दीन- हीन और मलीन बन जायेंगे। हमारा व्यक्तित्व प्रभावहीन हो जायेगा जो समाज में व्यक्त हुए बिना बच नहीं सकता।
जो आदमी अपने प्रति उच्च तथा उदात्त विचार रखता है, अपने व्यक्तित्व का मूल्य कम नहीं आँकता, उसका मानसिक विकास सहज ही हो जाता है। उसका आत्म- विकास आत्म- निर्भरता और आत्म- गौरव जाग उठता है। इसी गुण के कारण बहुत से लोग जो बचपन से लेकर यौवन तक दब्बू रहते हैं, आगे चलकर बड़े प्रभावशाली बन जाते हैं। जिस दिन से आप किसी दब्बू, डरपोक तथा साहसहीन व्यक्ति को उठकर खड़े होते और आगे बढ़ते देखें, समझ लीजिए कि उस दिन से उसकी विचारधारा बदल गई और अब उसकी प्रगति कोई रोक नहीं सकता।
विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता- बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोक प्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं। पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचारधारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचारधारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है। अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति, ईमानदारी और सहयोग को दृढ़ रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्यों ही उसकी विचारधारा में गैर- ईमानदारी, शोषण और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उसका व्यापार ठप्प होने लगता है। इसी अच्छी- बुरी विचारधारा के आधार पर न जाने कितनी फर्में और कम्पनियाँ नित्य ही उठती- गिरती रहती हैं।
विचारधारा में जीवन बदल देने की कितनी शक्ति होती है, इसका प्रमाण हम महर्षि वाल्मीकि के जीवन में पा सकते हैं। महर्षि वाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में रत्नाकर डाकू के नाम से प्रसिद्ध थे। उनका काम राहगीरों को मारना, लूटना और उससे प्राप्त धन से परिवार का पोषण करना था। एक बार देवर्षि नारद को उन्होंने पकड़ लिया। नारद ने रत्नाकर से कहा कि तुम यह पाप क्यों करते हो? चूँकि वे उच्च एवं निर्विकार विचारधारा वाले थे इसलिए रत्नाकर डाकू पर उनका प्रभाव पड़ा, अन्यथा भय के कारण किसी भी वंचित व्यक्ति ने उसके सामने कभी मुख तक नहीं खोला था। उसका काम तो पकड़ना, मार डालना और पैसे छीन लेना था, किसी के प्रश्नोत्तर से उसका कोई संबंध नहीं था। किन्तु उसने नारद का प्रश्न सुना और उत्तर दिया— ‘‘अपने परिवार का पोषण करने के लिए।’’
नारद ने पुनः पूछा कि ‘‘जिनके लिए तुम इतना पाप कमा रहे हो, क्या वे लोग तुम्हारे पाप में भागीदार बनेंगे?’’ रत्नाकर की विचारधारा आन्दोलित हो उठी, और वह नारद को एक वृक्ष से बाँधकर घर गया और परिजनों से नारद का जिक्र किया और उनके प्रश्न का उत्तर पूछा। सबने एक स्वर से निषेध करते हुए कहा कि हम सब तो तुम्हारे आश्रित हैं। हमारा पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है, तुम पाप करते हो तो इससे हम लोगों को क्या मतलब? अपने पाप के भागी तुम खुद होगे।
परिजनों का उत्तर सुनकर रत्नाकर की आँखें खुल गईं। उसकी विचारधारा बदल गई और नारद के पास आकर दीक्षा ली और तप करने लगा। आगे चलकर वही रत्नाकर डाकू महर्षि वाल्मीकि बने और रामायण महाकाव्य के प्रथम रचियता। विचारों की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह देवता को राक्षस और राक्षस को देवता बना सकती है।
विचारशक्ति सदा अमोघ
विचार कीजिए— ‘‘मैं सच्चिदानंद परमात्मा का अंश हूँ। मेरा उससे अविच्छिन्न संबंध है। मैं उससे कभी दूर नहीं होता और न वह मुझसे ही दूर रहता है। मैं शुद्ध- बुद्ध और पवित्र आत्मा हूँ। मेरे कर्तव्य भी पवित्र तथा कल्याणकारी हैं। उन्हें मैं अपने बल पर आत्म- निर्भर रह कर पूरा करूँगा। मुझे किसी दूसरे का सहारा नहीं चाहिये, मैं आत्म- निर्भर, आत्म- विश्वासी और प्रबल माना जाता हूँ। असद् तथा अनुचित विचार अथवा कार्यों से मेरा कोई संबंध नहीं है और न किसी रोग- दोष से ही मैं आक्रान्त हूँ। संसार की सारी विषमताएँ क्षणिक हैं जो मनुष्य की दृढ़ता देखने के लिए आती हैं। उनसे विचलित होना कायरता है। धैर्य हमारा धन और साहस हमारा सम्बल है। इन दो के बल पर बढ़ता हुआ मैं बहुत से ऐसे कार्य कर सकता हूँ जिससे लोकमंगल का प्रयोजन बन सके। आदि- आदि।’’
इस प्रकार के उत्साही तथा सदाशयतापूर्ण चिंतन करते रहने से एक दिन आपका अवचेतन प्रबुद्ध हो उठेगा, आपकी खोई शक्तियाँ जाग उठेंगी, आप के गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार हो जायेगा और आप परमार्थ पथ पर उन्नति के मार्ग पर अनायास ही चल पड़ेंगे और तब न आपको चिन्ता, न निराशा और न असफलता का भय रहेगा न लोक- परलोक की कोई शंका। उसी प्रकार शुद्ध- बुद्ध तथा पवित्र बन जायेंगे जिस प्रकार के आपके विचार होंगे और जिनके चिन्तन को आप प्रमुखता दिए होंगे।
सभी का प्रयत्न रहता है कि उनका जीवन सुखी और समृद्ध बने। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोग पुरुषार्थ करते हैं, धन- सम्पत्ति कमाते, परिवार बसाते और आध्यात्मिक साधना करते हैं। किन्तु क्या पुरुषार्थ करने, धन- दौलत कमाने, परिवार बसाने और धर्म- कर्म करने मात्र से लोग सुख- शान्ति के अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं। सम्भव है इस प्रकार प्रयत्न करने से कई लोग सुख- शान्ति की उपलब्धि कर लेते हों, किन्तु बहुतायत में तो यही दीखता है कि धन- सम्पत्ति और परिवार परिजन के होते हुए भी लोग दुःखी और त्रस्त दीखते हैं। धर्म- कर्म करते हुए भी असन्तुष्ट और अशान्त हैं।
सुख- शान्ति की प्राप्ति के लिए धन- दौलत अथवा परिवार परिजन की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता सद्विचारों की होती है। वास्तविक सुख- शान्ति पाने के लिए विचार साधना की ओर उन्मुख होना होगा। सुख- शान्ति न तो संसार की किसी वस्तु में है और न व्यक्ति में। उसका निवास मनुष्य के अन्तःकरण में है। जो कि विचार रूप से उसमें स्थित रहता है। सुख- शान्ति और कुछ नहीं, वस्तुतः मनुष्य के अपने विचारों की एक स्थिति है। जो व्यक्ति साधना द्वारा विचारों को उस स्थिति में रख सकता है, वही वास्तविक सुख- शान्ति का अधिकारी बन सकता है। अन्यथा, विचार साधना से रहित धन- दौलत से सिर मारते और मेरा- तेरा, इसका- उसका करते हुए एक झूठे सुख, मिथ्या शान्ति के मायाजाल में लोग यों ही भटकते हुए जीवन बिता रहे हैं और आगे भी बिताते रहेंगे।
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युग निर्माण योजना दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.४९)
Power of Thoughts: the Only Creator of Destiny
It is said that a man’s destiny is written in his head. This destiny is called the blueprint of the future. Only thoughts determine the shape of future life and materialize the possibilities. So, any way we think, it is true that plans for all actions are first created in the forehead only! Forehead means brain, and brain means mind or the thought process. Hence, the preachers of psychology are right in indicating that our future is based upon the style of our thinking. The line of thought and its influence compels one to act accordingly. Therefore, whatever language our scriptures use, the final truth they reveal is, the action is never performed automatically. Its background is always gradually, slowly prepared over a long period of time according to the thought process.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
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अनंत शक्तियों का स्वामी हैं हमारा मन!
मन की परमात्मा से संबंध
हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि मन का परमात्मा के साथ घनिष्ठ संबंध है। मन और ब्रह्म दो भिन्न वस्तुएं नहीं हैं। ब्रह्म ही मन का आकार धारण करता है। अतः मन अनंत और अपार शक्तियों का स्वामी है।
मन स्वयं पुरुष है एवं जगत का रचयिता है। मन के अंदर का संकल्प ही बाह्य जगत में नवीन आकार ग्रहण करता है। जो कल्पना चित्र अंदर पैदा होता है, वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होता है। सीधी-सी बात है कि हर विचार पहले मन में ही उत्पन्न होता है और मनुष्य अपने विचार के आधार पर ही अपना व्यवहार निश्चित करता है।

अगर मन में विचार ही न हों तो फिर क्रियान्वयन कहां से आएगा। शायद इसीलिए कहा गया है कि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। मन का स्वभाव संकल्प है। मन के संकल्प के अनुरूप ही जगत का निर्माण होता है। वह जैसा सोचता है, वैसा ही होता है। मन जगत का सुप्त बीज है। संकल्प द्वारा उसे जागृत किया जाता है।
यही बीज, पहाड़, समुद्र, पृथ्वी और नदियों से मुक्त संसार रूपी वृक्ष उत्पन्न करता है। यही जगत का उत्पादक है। सत्‌, असत्‌ एवं सदसत्‌ आदि मन के संकल्प हैं। मन ही लघु को विभु और विभु को लघु में परिवर्तित करता रहता है।
मन में सृजन की अपार संभावनाएं स्वयं द्वारा ही निर्मित की हुई हैं। मन स्वयं ही स्वतंत्रतापूर्वक शरीर की रचना करता है। देहभाव को धारण करके वह जगत्‌ रूपी इंद्रजाल बुनता है। इस निर्माण प्रक्रिया में मन का महत्वपूर्ण योगदान है।
मन का चिंतन ही उसका परिणाम है। यह जैसा सोचता है और प्रयत्न करता है, वैसा ही उसका फल मिलता है। मन के चिंतन पर ही संसार के सभी पदार्थों का स्वरूप निर्भर करता है। दृढ़ निश्चयी मन का संकल्प बड़ा बलवान होता है। वह जिन विचारों में स्थिर हो जाता है, परिस्थितियां वैसी ही विनिर्मित होने लगती हैं। जैसा हमारा विचार होता है, वैसा ही हमारा जगत्‌।
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