मेरे जीवन पर श्रीमद् गीता का प्रभाव
पवन बख्शी
मेरी माता जी एक कट्टर सनातनी] प्रतिदिन पूजा पाठ करने वाली महिला थीं और
मेरे पिता कट्टर आर्य समाजी थे। मेरा बचपन इन्हीं दोनों के संगम में व्यतीत हुआ।
दोनों की विचारधाराएं अलग अलग थीं। मेरे माता पिता में अक्सर किसी न किसी बात पर
प्रायः झगड़ा होता रहता था। लेकिन एक अद्भुत बाद यह थी कि एक सनातनी और एक गैर
सनातनी अर्थात आर्य समाजी होने के कारण कभी कोई विवाद नहीं होता था। दोनों अपनी
अपनी जगह स्वतन्त्र थे। दोनों परम्पराएं घर में पनपतीं रहीं। मेरे जीवन पर कभी भी
न तो मातृ पक्ष उभर कर मुझे सनातनी बना सका और न ही कभी पितृ पक्ष उभर कर मुझे
आर्यसमाजी बना सका। हां दोनों संस्कृतियों में पले बढ़े होने के कारण तथा बाद में
वेद पुराणों एवं कुराण शरीफ, गुरूग्रन्थ साहब, जैन साहित्य] बुद्ध साहित्य आदि
तमाम ग्रन्थों के अध्यनोपरान्त मेरी विचारधारा और ऊपर उठ गई।
मैं उम्र के इक्कीसवें या बाइसवें वर्ष में था कि मुझे गीता
प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद् गीता का अध्यन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ
था। मुझे याद है कि मैंने कुछ ही घन्टों में श्रीमद् गीता पढ़ डाली थी। मुझे
श्रीमद् गीता का दूसरा अध्याय बहुत अच्छा लगा था जिसमें आत्मा के बारे में बताया
गया है कि आत्मा कभी मरती नहीं। उस दूसरे
अध्याय में से भी कुछ श्लोक मुझे बहुत ही अच्छे लगे अथवा मैं उनसे प्रभावित हुआ।
मैंने अपने पसन्द के कुछ श्लोक अपनी एक डायरी में नोट भी कर लिए थे। दुःख क्या
होता है् यह अहसास करने लिए न
तो उस समय आयु थी और न कोई अप्रिय घटना। उसके बाद मैं सांसारिक कार्यों और
जीविकोपार्जन के उपायों में लिप्त हो गया। न तो कभी श्रीमद् गीता की जरूरत पड़ी और
न कभी इसकी याद आई।
पहली बार मुझे श्रीमद् गीता के उन श्लोकों की जो मैंने कभी
अपनी डायरी में नोट किए थे, तब याद आई जब मेरी
माता जी का देहान्त हुआ। बरामदे में उनका पार्थिव शरीर रखा हुआ था और घर में रोने
धोने चीखने चिल्लाने जैसा वातावरण था। मैं एक किनारे बैठा सोच रहा था कि रोने धोने
चीखने चिल्लाने वाले यह सभी लोग जानते हैं कि उनके ऐसा करने पर पार्थिव शरीर में
चेतना लौट कर नहीं आएगी। फिर यह सब ऐसा क्यों कर रहे हैं। मेरी दशा बड़ी अज़ीब थी।
मैं छोटा था] किसी को कुछ समझा
नहीं सकता था। मैं मौन मंथन में मृतक के संस्कार की क्रियाओं को देखता रहा। उसी
वातावरण में मैंने अपनी पुरानी डायरी को तलाशा। मैंने उन श्लोंकों का पुनः अध्यन
और मंथन किया। उस समय इन श्लोकों के भावार्थों ने मुझे बहुत मानसिक बल प्रदान
किया। उसके बाद माता जी का अभाव मुझे कभी नहीं खटका। श्रीमद् गीता के जिन श्लोकों का मुझ पर प्रभाव रहा वे इस
प्रकार हैं।
गीता अध्याय 2
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः । 11।
श्री भगवान बोले - हे अर्जुन] तू शोक न करने वाले मनुष्य के लिए शोक करता है और विद्वानों
के जैसे वचनों को कहता है, परन्तु जो विद्वान
हैं, ज्ञानी हैं वह किसी
भी मनुष्य के लिए शोक नहीं करते चाहे उनमें प्राण हैं अथवा प्राण चले गये हैं।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् । 12।
आत्मा की नित्यता बतायी गयी है। आत्मा नित्य है] अजर है] अमर है। उसका कभी
नाश नहीं होता है। जीव भी आत्मा का ही स्वरुप है अतः वह भी नित्य है। जीव तत्व को
कोई नष्ट नहीं कर सकता। सृष्टि के सभी जीव पहले भी थे] आज भी हैं और कल भी रहेंगे।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति । 13।
देह और इन्द्रिय तत्व नष्ट होने वाले हैं] मृत्यु धर्मा हैं। जीवतत्व अमर है। नाश रहित है। शरीर में
हम बालक] युवा और वृद्धावस्था
देखते हैं] इन सभी अवस्थाओं में
देही नित्य स्थित रहता है। इसी प्रकार जीवात्मा के अनेक शरीर बदलते रहते हैं] परन्तु वह सदा रहता है। जो पुरुष आत्मा के सदा एक समान रहने
वाले स्वरुप को समझ जाता है] उसकी बुद्धि विचलित
नहीं होती और वह साँसारिकता में मोहित नहीं होता।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत । 14।
मनुष्य की इन्द्रियां उसकी चेतना को संसार की ओर
प्रवाहित करती हैं। इन्द्रियों की रुचि विषयों की ओर होती है] इसी कारण सुख दुःख] सर्दी गर्मी का
प्रभाव हमारे अन्तःकरण पर पड़ता है। जो वस्तु हमे प्रिय लगती है उससे सुख प्राप्त
होता है तथा जो हमें अप्रिय लगती है उससे दुख प्राप्त होता है। परन्तु यह सभी
इन्द्रियां और उनके विषय उत्पत्ति व विनाश शील हैं] इसलिए अनित्य हैं अतः इस सच्चाई को जानकर उन्हें सहन करना
ही उचित है।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते । 15।
विषयों के आधीन जो पुरुष नहीं होता है] सुख और दुःख में जो समान रहता है वह अमृत तत्व के योग्य
होता है। उसका चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है। यही क्षीर सागर है।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः । 16।
सृष्टि का मूल तत्व सत् है] वही नित्य है] सदा है। असत् जिसे
जड़ या माया कहते हैं] यह वास्तव में है ही
नहीं। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तब तक सत् और असत् अलग अलग दिखायी देते हैं।
ज्ञान होने पर असत् का लोप हो जाता है वह ब्रह्म में तिरोहित हो जाता है। उस समय न
दृष्टा रहता है न दृश्य। केवल आत्मतत्व जो
नित्य है] सत्य है] सदा है] वही रहता है।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति । 17।
यह आत्मा सदा नाश रहित है । आत्मा ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को
व्याप्त किया है। सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ आत्मतत्व न हो। इस
अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत । 18।
जीवात्मा इस देह में आत्मा का स्वरूप होने के कारण सदा
नित्य है। इस जीवात्मा के देह मरते रहते हैं। अतः जीवन संग्राम से क्या घबराना।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते । 19।
जब देह मरता है तो समझा जाता है सब कुछ नष्ट हो गया परन्तु
ऐसा नहीं होता है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं] जो इसे मारने वाला और मरणधर्मा मानता है] वह दोनों नहीं जानते । यह आत्मा न किसी को मारता है] न मरता है। आत्मा अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अतः किसी को
नहीं मारता । नित्य अविनाशी है अतः किसी भी काल में नहीं मरता है।
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-
न हन्यते हन्यमाने शरीरे । 20।
इस आत्मा का न जन्म है मरण है। न यह जन्म लेता है न किसी को
जन्म देता है। हर समय नित्य रूप से स्थित है] सनातन है। इसे कोई
नहीं मार सकता। केवल इसके देह नष्ट होते हैं।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् । 21।
आत्मा को जो पुरुष नित्य] अजन्मा] अव्यय जानता है] उसे बोध हो जाता है कि आत्मा जो उसमें और दूसरे में है वह
नित्य है। फिर वह कैसे किसी को मारता है या मरवा सकता है।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।22।
जीवात्मा के शरीर उसके वस्त्र हैं वह पुराने शरीरों को उसी
प्रकार त्याग कर शरीर धारण करता है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए
वस्त्र धारण करता है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः । 23।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं] इसे आग में जलाया नहीं जा सकता] जल इसे गीला नहीं कर सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह
निर्लेप है, नित्य है] शाश्वत है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । 24।
आत्मा को छेदा नहीं जा सकता] जलाया नहीं जा सकता] गीला नहीं किया जा
सकता] सुखाया नहीं जा सकता] यह आत्मा अचल है] स्थिर है] सनातन है।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि । 25।
यह आत्मा व्यक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि आत्मा अनुभूति
का विषय है। इसका चिन्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बुद्धि से परे है। यह आत्मा
विकार रहित है क्योंकि यह सदा अक्रिय है।
आत्मतत्व को बताते हुए भगवान श्री कृष्ण चन्द्र अर्जुन से कहते हैं कि जैसा मैंने
बताया वैसे आत्मा को जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।26।
परन्तु इस देह में आत्मा क्रियाशील और मरता जन्म लेता दिखायी देता है इसलिए अर्जुन की बुद्धि में
उपजे इस संशय को दूर करने के लिए भी भगवान श्री कृष्ण चन्द्र कहते हैं] यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला और मरने वाला मानता
है फिर शोक क्यों
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि । 26।
क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होगी और जो मर गया
है उसका जन्म निश्चित है। इसे रोका नहीं जा सकता । यह अपरिहार्य है। अतः तुझे शोक
नहीं करना चाहिए।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना । 28।
सभी प्राणी जन्म से पहले दिखायी नहीं देते तथा मृत्यु के
बाद भी नहीं दिखायी देते हैं. यह बीच में प्रकट होते हैं फिर शोक क्यों
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् । 29।
आत्मतत्त्व एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह कुछ
करता हुआ दिखायी देता है। यह निराकार है] अजन्मा है] फिर भी जन्म लेते हुए] मरते हुए दिखायी
देता है।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि । 30।
आत्मा इस देह में अवध्य है अर्थात इसे कैसे ही] किसी भी प्रकार] किसी के द्वारा नहीं
मारा जा सकता क्योंकि यह मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है।
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दूसरी बार मुझे इन श्लोकों ने तब मानसिक बल प्रदान किया जब
मेरे पिता का निधन हुआ। पुनः वही दृश्य था जो माता जी के समय था। बरामदे में उनका
पार्थिव शरीर रखा हुआ था और घर में रोने धोने चीखने चिल्लाने जैसा वातावरण था। मैं
एक किनारे बैठा सोच रहा था कि रोने धोने चीखने चिल्लाने वाले यह सभी लोग जानते हैं
कि उनके ऐसा करने पर पार्थिव शरीर में चेतना लौट कर नहीं आएगी। फिर यह सब ऐसा
क्यों कर रहे हैं। मेरी दशा बड़ी अज़ीब थी। मैं छोटा था, किसी को कुछ समझा नहीं सकता था। मैं मौन मंथन में मृतक
संस्कार की क्रियाओं को देखता रहा।
मृत्यु के समय मेरे पिता की आयु 94 वर्ष की थी। उसके पहले के तीन वर्ष उनके लिए बहुत ही
कष्टदायी थे। उनकी आंखों की ज्योति क्षीण हो चुकी थी काया ज्यूं अस्थिपंजर। मैं और
मेरी बेटी शैली हम दोनों ही उनके हाथ पांव आंख थे। उन्हें नहलाना धुलाना, कमरे से बाहर लाकर प्रतिदिन कुछ टहलाना, अपने हाथों से उन्हें खाना खिलाना एक और जहां हमें उनकी सेवा का अवसर प्रदान कर रहा था
वहीं दूसरी और मैं यह भी सोचता रहता था कि हम चाहे जितना मन से उनकी सेवा कर रहे
हों परन्तु पिता जी स्वयं कितना कष्ट भोग रहे हैं इसका तो अन्दाज़ा लगाना मुश्किल
था। जो व्यक्ति तीन साल पहले तक अपने द्वारा बनाई क्यारियों को सींचने] संवारने और उसकी देखरेख में दिन का आधा भाग व्यतीत करता रहा
हो, जो व्यक्ति अपना
अधिकांश भाग अध्यन अथवा लिखने पढ़ने में व्यतीत करता रहा हो आज वह अकेले] असहाय कितना कष्ट भोग रहा है। मैं मन ही मन ईश्वर से पूछता
कि जब इनकी काया में स्फूर्ति वापस नहीं आ सकती] जब इनकी आंखों की रोशनी वापस नहीं आ सकती तब क्यों नहीं
इन्हें कोई दूसरा जन्म दे देते। यह विचार भी मुझे श्रीमद् गीता के उन श्लोकों के
कारण ही आए थे। और यही वह कारण था कि पिता के पार्थिव शरीर के निकट रह कर भी मेरे
आंसू नहीं निकले। जबकि मेरा लगाव माता जी की अपेक्षा अपने पिता से काफी अधिक रहा
है।
तीसरी बार मुझे यह श्लोक तब याद आए जब मेरी पत्नी का नम्बर
आया। लगभग चालीस वर्ष की अवस्था में सुगर की बीमारी के कारण उनके दोनों गुर्दों ने काम करना कम कर
दिया था। चिकित्सकों के अनुसार उनका जीवन चार पांच महीनों से अधिक का न था। गुर्दा
प्रत्यारोपण की संभावना को उन्होंने इन्कार कर दिया था। मेरे पास इसके अतिरिक्त और
कोई चारा न था कि मैं उन्हें घर ले जाकर प्रतिदिन उनकी अन्तिम सांस की प्रतीक्षा
करूं। दिन प्रतिदिन गुर्दों का काम करना कम होता जा रहा था। पेशाब न होने के कारण
शरीर पर सूजन बढ़ती जा रही थी। पैरों का मांस फट फट पानी रिसने लगा था। ऐसी दयनीय
दशा देखने के लिए भी पत्थर का कलेजा होना चाहिए। ऐसी दशा का कष्ट झेलते हुए उनको
दो माह व्यतीत हो चुके थे। अब स्थिति अत्यन्त गम्भीर हो चुकी थी। बदन का पानी
फेफड़ों पर दबाव बनाने लगा था। जब लेटने में कष्ट अधिक बढ़ने लगा तो मैंने उनके
लिए ऐसी व्यवस्था की जिससे वे सदा अधलेटी अवस्था में रहें। मैं सोचने लगा कि अब
कुछ ही दिनों में पानी का दबाव फेफड़े पर इतना अधिक हो जाएगा कि बस अगले एक माह के
भीतर कभी भी अन्तिम सांस आने वाली है।
मैंने अपनी इकलौती बेटी जिसकी आयु तब मात्र तेरह वर्ष की थी, को बुलाया और उसे पूरी तरह से अवगत करा दिया कि उन्हें क्या
हुआ है। और अगले कुछ दिनों में क्या होने वाला है। हम लोग प्रतिदिन इसी विषय पर
अधिक बात करने लगे थे। मैंने अपनी बेटी को मानसिक रूप से इतना सुदृढ़ कर दिया था
कि उसे मानसिक आघात न लग कर सामान्य सा लगे। मैं मन ही मन ईश्वर से पूछता कि जब
इनकी काया में स्वास्थ वापस नहीं आ सकता,
जब इनके गुर्दे काम नहीं कर सकते तब क्यों नहीं इन्हें कोई
दूसरा जन्म दे देते।
अंततः वह दिन आ ही गया। पत्नी मृत अवस्था में पड़ी थी। सुबह
छः बजे का समय था। शैली गहरी नींद में सो रही थी। मैंने उसे जगाया और उसे उसकी मां
के जाने की सूचना दी। उसने एक मिनट मां की और देखा और बोली- चलो पापा! सबको फोन कर
आएं। तब फोन करने के लिए हमें पी0सी0ओ0 जाना पड़ता था।
मैंने राहत की सांस ली। इतने दिनों से मैंने उसे मानसिक रूप से जितना दृढ़ किया था
उसका परिणाम मेरे सामने था। पड़ेसियों को बुलाकर तब हम अपने निकटजनों को फोन करने
गए। शाम तक परिजन एकत्र हो गए। मुझे याद है उसी अवसर पर शैली की मामी कम्मो ने
मुझसे कहा था- आप परेशाान न हों, मैं समझूंगी मेरी दो
नहीं तीन बेटियां हैं। और यह सच भी है कि उसके बाद मेरी बेटी मेरे पास कम उनके पास
अधिक रही। श्रीमद् गीता के उन श्लोकों का ही प्रभाव था कि पत्नी के पार्थिव शरीर
के निकट रह कर भी मेरे आंसू नहीं निकले।
श्रीमद् गीता के उन श्लोकों का चैथी बार मुझे उस समय मानसिक
बल मिला जब मेरी इकलौती बेटी शैली अस्पताल में जीवन की अन्तिम घडि़यां गिन रही थी।
7 दिसम्बर 2012 को उसकी शादी हुई। शादी के लगभग पन्द्रह दिन बाद उसको
सर्दी जुकाम की शिकायत हो गई। अब उसकी देखभाल के लिए उसके ससुराल के लोग उसके पास
थे इसलिए मैं इतना परेशान न था। न ही बीमारी कोई गम्भीर थी। मैं दिसम्बर के अन्तिम
सप्ताह हिमाचल चला गया। तीन जनवरी को मैं जगत सिंह प्रधान की कार से पौन्टा साहब
की ओर निकला। हम लोग पौन्टा साहब पहुंचे ही थे कि तभी नमित (दामाद) का फोन आया कि
शैली अस्पताल में भर्ती है आप जल्दी आ जाओ। मैं अगले ही मिनट वहां से बस द्वारा चल
दिया और अगले दिन लखनऊ पहंुच गया।
नमित और उसके पापा दिन भर अस्पताल में रहते थे रात को मैं
अस्पताल में रहता था। शैली की हालत दिन प्रतिदिन गम्भीर होती जा रही थी। वह दिन भी
आ गया जब उसे वेन्टीलेटर पर रखा गया। मैं अस्पताल के बरामदे में लेटा हुआ था। मेरे
आस पास आई0सी0यू0 में भर्ती मरीजों
के परिजन लेटे हुए थे। प्रतिदिन रात का दृश्य कुछ इस प्रकार होता था कि रात के
किसी भी क्षण आई0सी0यू0 का कोई कर्मचारी
मरीज के परिजन को पुकार लगाता और उन्हें तुरन्त अन्दर डाक्टर से मिलने को कहा
जाता। थोड़ी देर बाद जब वह भीगी पलकों के साथ वह वापस आता तो मैं समझ जाता कि इसका
मरीज़ अन्तिम सांस ले चुका है। वहां का वातावरण कुछ इस प्रकार बन चुका था कि जैसे
ही आई0सी0यू0 का दरवाजा खुलता, बरामदे में लेटे हर परिजन को लगता कि शायद अगली पुकार उसके
मरीज़ की तो नहीं। एक बार तो मेरे दिमाग में भी आ गया था कि कहीं अगली पुकार मेरे
लिए तो नहीं होने वाली।
एक दिन डाक्टर ने मुझे बताया कि आपकी बेटी चार पांच दिन की
मेहमान है। सुन ही तो सकता था मैं कुछ कर नहीं सकता था। एक रात मैं अस्पताल के
बरामदे में लेटा हुआ था। रात के दस या साढ़े दस बजे होंगे। मुझे ऐसा लगने लगा कि
शायद आज मेरी बेटी मुझसे दूर हो जाएगी। मैं तुरन्त उठा और आई0सी0यू0 के अन्दर गया। मैंने वहां उपस्थित डाक्टर से कहा कि मैं
अपनी बेटी के माथे पर हाथ रखना चाहता हूं। डाक्टर ने अनुमति देते हुए कहा कि पहले
इस केमिकल से हाथ धो लीजिए। मैंने उस केमिकल से हाथ धोए और शैली के माथे पर हाथ रख
कर कहा- बेटा! तुम्हारी हर खुशी को पूरा करने के लिए जहां तक जो भी सम्भव हो सका
मैंने पूरा किया। आज मैं विवश हूं कि किसी भी कीमत पर तुम्हारी सांसें नहीं बढ़ा
सकता। मुझे माफ कर देना। उसके माथे पर हाथ रखे हुए ही मैंने ईश्वर से प्रार्थना
की- हे ईश्वर! यदि इसकी जिन्दगी शेष है तो सुबह इसकी आंख खोल देना आराम चाहे कितने
दिन बाद मिले। अगर तुमने इसे लेकर ही जाना है तो इस तरह तड़पा तड़पा के ले जाने से
अच्छा है कि कल इसे ले भी
जाना। इसी बीच शैली की मामी कम्मो भी आ गईं। उन्होंने भी उसके सिर पर हाथ रख कर
सम्भवतः उसकी दीर्घायु की कामना की होगी।
अगले दिन दोपहर ढाई बजे ईश्वर ने मेरी पहली बात तो नहीं
परन्तु दूसरी बात मान ली। और मैंने भी मोहम्मद रफी के एक भजन की एक पंक्ति:- तेरी
खुशी में खुश हैं दाता, हम बन्दे मज़बूर के
साथ उसके निर्णय को स्वीकार कर लिया। बेटी के पार्थिव शरीर को जब गाड़ी में रखा
जाने लगा तो मेरे दिमाग में एक ही विचार दौड़ रहा था। मैं तो अपनी बेटी को रात में
ही विदा कर आया था। अब इस पार्थिव शरीर को जलाया जाएगा और फिर पुराना दृश्य वही
रोना धोना चीखना चिल्लना। यह सब मैंने बहुत देख लिया अब यह सब देखना व्यर्थ है।
मैंने उसके पार्थिव शरीर को देखा भी नहीं। संस्कार का सामान भी मैंने अरुण मिश्रा
के साथ जा कर खरीदवाया और भिजवाया। मेरी बेटी! जो मेरे एकाकी जीवन का सहारा थी, जो मेरे जीवन का एक उददेश्य थी, जो बचपन से लेकर एक महीने पूर्व तक मेरे साथ चिपक कर lksrh
थी, जीवन के कुछ असहनीय
दिनों में जिसने मुझे एक बड़े की भान्ति समझाया, जो बिना मेरे बोले मुझे भीतर तक समझ जाती थी, जिसकी सोच में हरदम मेरी खुशी रहती थी आज उसी के संस्कार
में शामिल होने की सामथ्र्य न थी। संस्कार का सामान भिजवा देने के बाद मैं चुपचाप
अकेले अपने एक मित्र निमदीपुर के राजा ध्यानपाल सिंह के घर गया। राजा साहब घर पर न
थे उनकी पत्नी मिली। बेटी के बारे में उन्हें पता चल चुका था। मैंने उनसे कहा कि
मैं सोना चाहता हूं। उन्होंने एक कमरा खोल दिया और मैंने अलप्राजोलम की दो टिकिया
खाई और सो गया। दो दिन बाद मैं शैली के नीटू मामा के घर चला गया। चैथे दिन शान्ति
पाठ का आयोजन था। मेरा एक स्वभाव है कि जितना भी बड़ा दुख क्यों न हो मैं अकेले
में] एकान्त का अनुभव करके अपने आप को बड़ी अच्छी तरह से समझा
लेता हूं। बाहर के लोग जब मुझे सांत्वना के शब्द देते हैं तो मुझपर उनका कोई
प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि मुझे उनपर गुस्सा भी आने लग जाता है कि खुद की आंखों में
आंसू भरे होते हैं और दूसरों को झूठी तसल्ली देते हैं।
एकान्तवास हेतु मैंने अपने आपको एक कमरे में बन्द कर लिया।
शैली की मामी जी खाना देने जब भी ऊपर आतीं तो मैं उनका सामना करने में कतराता था।
जिस प्रकार वर्षों पहले उन्होंने कहा था कि मेरी एक नहीं तीन बेटियां है। वास्तव
में उनके शब्द कोरे शब्द न थे। बचपन के बाद का अधिकांश समय शैली का उन्हीं के
वात्सल्य एवं मातृत्व की छाया तले व्यतीत हुआ है। उन्होंने केवल उसे जन्म नहीं
दिया लेकिन उसको कभी भी अपनी ममता के आंचल से दूर नहीं होने दिया। शैली के विवाह
का दायित्व उसके मामा एवं मामी ने किस प्रकार निभाया इसे उस अवसर पर उपस्थित
प्रत्येक व्यक्ति जानता है। मैं उनको जैसे ही देखता मुझे लगता कि मैं रो पड़ंूगा।
कुछ मेरी तबीयत भी ठीक न रहने के कारण मुझसे उठा भी नहीं जा रहा था। मैं कई दिनों
तक लेटा ही रहा। बच्चे भी अब मेरे पास नहीं आते थे। मुझे लगने लगा कि क्या मैं इन
बच्चों से भी दूर हो गया हूं। मैंने इंटरनेट से सीट बुक की और हिमाचल चला गया। मैं
जिस दिन हिमाचल पहुंचा उसी दिन वहां का मौसम बिगड़ गया। बरसात के साथ बर्फ भी
गिरने लगी। पारा दो डिग्री नीचे आ गया था।
मेरी तबीयत जोकि पहले से कुछ खराब थी इस ठंड की चपेट में आ
गया। मैं सरकारी रेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य वीराने
में बने इस रेस्ट हाउस में उस दिन मैं और उसके दो कर्मचारी थे। मेरा बुखार इतना
बढ़ चुका था कि कर्मचारी घबरा गए। उन लोगों ने मुझे पहाड़ी काढ़ा बना कर पिलाया।
तपते बुखार में में मुझे महात्मा बुद्ध याद आ गए। उनके अन्तिम क्षणों में उनके पास
उनका एक शिष्य आनन्द ही उनके पास था। मेरे पास तो दो हैं। इस विचार से मुझे बड़ा
मानसिक बल मिला। मेरी बिगड़ती हालत को देखकर एक कर्मचारी ने कहा कि मैं आपके कमरे
में सो जाऊं। मैंने उसे मना करते हुए कहा कि तुम बाहर से ताला लगा दो जब मुझे
ज्रूरत होगी तो घंटी बजाकर बुला लूंगा। बेमन से उसने मेरा कहना माना। तीसरे दिन
मौसम भी काफी ठीक हो गया और मेरा बुखार भी काफी कम हो गया। मैं पुनः लखनऊ आ गया।
आज जनवरी की तेइस तारीख है। मेरी बेटी को विदा हुए मात्र पन्द्रह दिन हुए हैं। और
आज ही मैंने अपने भीतर की घुटन को शब्दों
में समेटने का प्रयास किया है अर्थात इस लेख को लिपिबद्ध किया है। ईश्वर! मेरी
इच्छा है लोग दुःख का अहसास कम से कम करें इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को श्रीमद्
गीता के इन श्लोकों की वास्तविक्ता का ज्ञान हो और उदाहरण स्वरूप मैं स्वयं